अचानक से सारा देश संवेदनशील हो गया, कुशल अभिनेत्रियों के गले संसद में भी अवरूद्ध हुए, समाजसेवी महिलासंगठन अचानक से सक्रिय नजर आने लगे, टी.वी.मीडिया चैनलों को बहस का एक मुद्दा मिल गया, फेसबुक और ब्लाग जगत जागरूक हो उठा, फिल्मों के जरिए अश्लीलता परोसने वाले हमारे फिल्मकार संजीदा हो गए, इंडिया गेट के मजमें में आम आदमी (राजनीतिक पार्टी) वालों ने और बाबा जी ने भी शिरकत कर समझाने की कोशिश की कि वह आम है, कहने का मतलब यह कि सभी में होड़ लगी हुई है, यह दर्शाने की कि वही सबसे ज्यादा जागरूक, महिला हितैषी और भावनाएं रखता है,
अचानक से ही इंडिया गेट और जंतर मंतर न्याय के मंदिर नजर आने लगे, युवा वर्ग अपने हाथों मे तख्तियां लेकर समाज को संवारने की मांग करता दिखा, लगातार "WE WANT JUSTICE" के अंग्रेजी नारों के माध्यम से वह तालिबानी शासन के 17 वीं सदी की न्याय की मांग कर रहे थे, और अफसोस कि उनकी इस बर्बर मांग के समर्थन में
सम्पूर्ण मीडिया जगत एक हो उनका साथ दे रहा था,
अब आगे बढ़ते हैं, जब इस भीड़ ने इंडिया गेट और जंतर मंतर पर उत्पात मचाना शुरू किया तो पुलिस को कार्यवाही करनी पड़ी (और क्या करती सरकार, इन्हें अराजकता फैलाने के लिए खुला छोड़ देती), और इन्होंने क्या किया, एक सिपाही की पीट पीट कर निर्मम हत्या कर दी, आज ये मोमबत्ती ब्रिगेड वाले उस सिपाही के घर नहीं जाएंगे, उसके लिए आंसू नहीं बहायेंगे, यह मीडिया उस सिपाही के लिए चीत्कार नहीं करेगी जो अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ, ठीक उसकी प्रकार जैसे यह कथित युवा तब जाग्रत नहीं होता जब नक्सली हमारे सैकड़ो सैनिकों की हत्या निर्ममतापूर्वक करते हैं, मैं किन्हीं दो घटनाओं की तुलना नहीं कर रहा वरन यह बताने का प्रयास कर रहा हूं कि कैसा दोमुंहा समाज है यह, आज सुबह का समाचार पत्र पढ़ा, दिल्ली में ही बलात्कार के तीन मामले दिखे, एक सामूहिक बलात्कार और हत्या का, एक बच्ची के साथ और एक अन्य, मुझे समझ नहीं आया कि ये मामले टी.वी.पर किसी ने क्यूं नहीं उठाए, सोशल मीडिया ने इनका संज्ञान क्यों नहीं लिया, मोमबत्ती ब्रिगेड आखिर इन मामलों के लिए कहां है,
पीडि़ता के साथ पूर्ण सहानुभूति व्यक्त
करते हुए मैं कहना चाहता हूं मित्रों कि आखिर क्या करती सरकार, भई एक घटना
घटित हुई, बिल्कुल शर्मनाक है, किसी भी सभ्य समाज के मुख पर काला धब्बा
है, परन्तु फिर भी आरोपी गिरफतार कर लिए गए, पुलिसिया और न्यायिक
कार्यवाही हो रही है, पीडि़ता को बेहतरीन इलाज भी चल रहा है, और क्या
करेगी सरकार, क्या चाहते हैं ये प्रदर्शनकारी यह कि बिना किसी गवाह, सबूत,
सुनवाई के वे उन सभी आरोपियों को लैंप पोस्ट से लटका कर
फांसी दे दी जाए, मित्रों, सरकार को जी भर कर कोसना
तो मानो फैशन ही बनता जा रहा है, सो इस फैशन का प्रदर्शन भी खूब हुआ, परन्तु यदि
यह विरोध वास्तव में सार्थकता लिए होता, तो क्या यह अच्छा नहीं होता कि
ये कथित आंदोलनकारी रास्तों पर गुजरने वाले उन सभी वाहनों जिनके शीशों पर
काली फिल्म चढ़ी हो या परदे लगे हो, को नोंच कर हटाने का काम करते बावजूद
इसके कि इंडिया गेट और जंतर मंतर पर हाय हाय करने के,
हां परन्तु इतना अवश्य है देश की कच्छप से भी मंद गति न्यायिक
व्यवस्था में सुधार की निश्चित रूप से आवश्यक्ता है, न्याय में देरी,
न्याय देने की मनाहीं के समान है, सिर्फ ऐसे मामलों के लिए ही क्यों, सभी
मामलों के निपटान के लिए एक समय सीमा तभी तय हो जानी चाहिए, जब ये मामने
प्रथम सुनवाई के लिए अदालत में पेश हों, न्याय सिर्फ होना ही नहीं चाहिए वरन न्याय होते हुए दिखना भी चाहिए, इस तरह के मामलों के लिए आज को सामाजिक ताना बाना भी काफी हद तक जिम्मेदार है, जिसकी पूर्ण पड़ताल होनी चाहिए और शिक्षा व्यवस्था में सुधार कर आधारभूत ढांचे को व्यवस्थित भी किया जाना चाहिए, यह ऐसा कुछ नहीं जिसे रातों रात ठीक किया जा सके,
परन्तु फिर भी अंत में आज के इस वातावरण को देखकर यही कहूंगा आज का समाज एक एक भीड़ तंत्र बनकर रह गया है और हम इस भीड़ के साथ चलना चाहते हैं, यदि ऐसा नहीं तो हमारी संवेदनाएं सेलेक्टिव न होकर समाज के समग्र सुधार हेतु गुंजायमान होती, भीड़ का कोई विवेक नहीं होता, यह किसी भी हद तक जा सकती है और गई भी, आज तो इस भीड़ ने एक हत्या की है, एक सिपाही की हत्या, हत्यारी है यह भीड़ जिसका समर्थन किसी भी सभ्य समाज में नहीं किया जा सकता,
मनोज
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