आज मैंने विशाखदत्त द्वारा संस्कृत में
लिखी पुस्तक मुद्राराक्षस का हिन्दी अनुवाद, जिसे रांगेय राघव ने किया है को
पढ़ा,
सच कहूं तो इतनी प्रसिद्व पुस्तक (नाटक)
से मेरी काफी अधिक अपेक्षाएं थी, अफसोस जो कि पूर्ण न हो सकीं, कथा साधारण है, या
युं कहें कि इस पर मुम्बइया मसाला फिल्म भी बन सकती है, बस एक दो आइटम सोंग्स
डालने भर की देर है, क्योंकि पूरे नाटक में महिला पात्र नहीं है, हां उनकी चर्चा
अवश्य है,
नाटक चंद्रगुप्त द्वारा नन्द के वध के
पश्चात सिंहासन ग्रहण करने और अमात्यप्रमुख राक्षस के भाग जाने की घटना के पश्चात
की है, अमात्य राक्षस को नंद के अत्यंत विश्वासपात्र सेवक के रूप में दिखाया
गया है, जोकि किसी भी प्रकार से नंद की मृत्यु का बदला लेकर चंद्रगुप्त की हत्या
करवाना चाहता है, वह अपने कई गुप्तचर और वधिक इस कार्य हेतु नियुक्त करता है,
परन्तु उन सभी की हत्या चाणक्य की कुटिल नीतियों के कारण उन्हीं के हथियार से
कर दी जाती है, मगध (कुसुमपुर) से भागते हुए राक्षस अपने परिवार को चरणदास नामक
अपने मित्र के पास छोड़ जाता है, यह बात चाणक्य को ज्ञात हो जाती है, फिर क्या
था, चाणक्य, चरणदास को बन्दी बना लेता है और राक्षस के परिवार का पता बताने के
लिए यातनायें देता है, परन्तु चरणदास अपनी मित्रभक्ति के सम्मुख विवश है और वह
किसी भी प्रकार से यह स्वीकार नहीं करता कि राक्षस का परिवार उसके पास है,
राक्षस मलयकेतु की मदद से कुसुमपुर पर
आक्रमण की योजना बनाता है, इस हेतु वह कई अन्य राजाओं से मित्रता भी कर लेता है,
परन्तु चाणक्य अपनी कुटिल चालों से मलयकेतु के सम्मुख यह सिद्व करवा देता है कि
उसके पिता पर्वतराज की हत्या राक्षस ने करवाई है और वह चन्द्रगुप्त से मिला हुआ
है,, मलयकेतु रूष्ट हो जाता है वह सभी मित्र राजाओं की हत्या करवा देता है, परन्तु
राक्षस को छोड़ देता है, सब तरफ अपने प्यादे पिटते देख राक्षस भी अपने ऊपर लगे उन
आरोपों को स्वीकार कर लेता है जोकि वास्तव में गलत थे, अब वह अपनी तलवार लेकर
कुसुमपुर की ओर निकल पड़ता है और अन्ततः चरणदास के जीवन के बदले चन्द्रगुप्त के
अमात्य का पद स्वीकार कर लेता है, नाटक यहॉं समाप्त होता है,
इस पूरे नाटक का अध्ययन करने पर सिर्फ
चाणक्य की कुटिल चालों का ही बोलबाला दिखाई देता है, एक समय तो चन्द्रगुप्त और
चाणक्य के मध्य नकली वाक युद्व भी दिखाया गया है, राक्षस स्वामीभक्त है परन्तु
उसकी कूटनीतियों को अत्यन्त साधारण दर्शाकर चाणक्य को महिमामंडित किया गया है,
चाणक्य द्वारा राक्षस को ब्लैकमेल कर मित्रता प्राप्त करना किसी भी दृष्टि में
एक अच्छा कदम नहीं दिखाई देता, इस तरह मोलभाव के माध्यम से क्रय की गई मित्रता
किसी भी पल घातक हो सकती है, यह चाणक्य को भली भांति ज्ञात रहा होगा, फिर भी वह
राक्षस को इस प्रकार स्वीकार करे, कुछ पचता नहीं, राक्षस ने अत्यन्त साधारण
चालें चले और वे सारी की सारी हवाई फायर साबित हों, यह भी नहीं जंचता, अनुवाद में
अत्यंत क्लिस्ट भाषा का प्रयोग किया है, जाकि सबके लिए सहजता से बोधगम्य नहीं
है,
सबसे अधिक आश्चर्य तो मुझे पुस्तक का
पृष्ठ भाग देखकर हुआ, यहां यह नाटक गुप्तकाल का और चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय
का बताया गया है, ऐसे ऐतिहासिक नाटक में ऐसी भूल क्षम्य नहीं हो सकती है,
बहरहाल इतने प्रसिद्व नाटक को पढ़ने पर
प्रसन्नता अवश्य हुई इससे इन्कार मैं नहीं कर सकता,
मनोज
बहुत अच्छा विश्लेषण लिखा आपने..पुस्तक को पढने के लिए मेरी रूचि और सन्दर्भों के सम्बन्ध में जिज्ञासा बढ़ गई
ReplyDeleteधन्यवाद मधु जी, यदि ऐसा है तो मेरा लिखना सार्थक रहा
Deleteबढ़िया ....
ReplyDeleteपुस्तक को पढ़ने की इच्छा तो थी मगर हिम्मत नहीं की...आज आपकी समीक्षा से कथा सार जान भी लिया और एक कमतर लेखन (नाटक) को पढ़ने से बच भी गए...
ReplyDeleteसटीक एवं बेबाक समीक्षा के लिए आभार.
सादर
अनु
भाई साब यह नही पढ़ तो जिंदगी में कुछ भी न पढ़ना
Deleteचन्द्रगुप्त मौर्य के जमाने में पालि और प्राक्रत भाषा का चलन था। तो फिर ये कैसे संभव है कि राजा के राज्य में पालि और प्राक्रत भाषा का चलन है और उसका प्रधानमंत्री चाणक्य संस्कृत में नीति और अर्थशास्त्र लिख रहा है।
ReplyDeleteWho is Nandini
ReplyDeleteAvshesh ka link bhejiyega.. padhne ki iksha jagrit ho gayi
ReplyDeleteSumit.ics@gmail