समझा अपना.
निकला सपना.
रे मूरख क्यूँ व्यर्थ बिलखना..
श्वांस हमारी संग तिहारी.
कैसे मोड़ पे आके हारी.
सोचा था है अपनी कुटिया....
यहीं पे रहना, यहीं पनपना..
पर रक्षक ने द्वार पे रोका.
बोला यहाँ नहिं माला जपना...
समझा अपना.
निकला सपना.
रे मूरख क्यूँ व्यर्थ बिलखना..
सोचा मिल बाटेंगे पीड़ा.
साथ समय के करेंगे क्रीडा..
उनकी खातिर खूब हँसेंगे..
उनकी खातिर ही है तड़पना..
सुन्दर बगिया का माली था,
बोला यहाँ नहिं मरना खपना..
समझा अपना
निकला सपना.
रे मूरख क्यूँ व्यर्थ बिलखना...
(मनोज)
बहुत ही अच्छी....
ReplyDeleteउत्तम भाव ... बेहतरीन रचना ... बधाई
ReplyDeleteboht acha
ReplyDeletenice one
ReplyDeleteGood one Manoj. Like it.
ReplyDeleteकटु सत्य के साथ बेहतरीन काव्य रचना ....बहुत खूब
ReplyDeleteबहुत ही सशक्त रचना पढवाई आपने .बधाई ,शुक्रिया .
ReplyDeleteधन्यवाद वीरुभाई ...
Deleteधन्यवाद शांति जी.....
ReplyDeletebahut hi behtareen rachna hai
ReplyDeleterealistic
Thanks Neha.....
Deleteसमझा अपना
ReplyDeleteनिकला सपना.
रे मूरख क्यूँ व्यर्थ बिलखना...
बडी अच्छी सीख मिली आपकी कविता से पर दिल नादान इतना जल्दी कहां समझता है।
जी कभी कभी दिल को समझाने के लिए........दिमाग का प्रयोग जरूरी हो जाता है....
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