आधुनिकता के दौर में,
टूटा हर सुख सपना,
हुए स्वार्थी रिश्ते नाते,
मीत बचा न कोई अपना,
खींच खांच के चलती गाड़ी लढ़िया है...
सब बढ़िया है......
टूटी फूटी खटिया पर,
बैठा अध्यापक,
जनगणना, मतगणना का
हर काम है व्यापक,
बच्चों हित ना बोर्ड चटाई खड़िया है...
सब बढ़िया है...
भई दूर रोटी चटनी,
सत्तू पिआज मरचा चोखा,
निर्धन की टूटती साँसों से,
वे ढूँढते वोटों का मौका,
टूट रही सत्ता समाज की कड़ियाँ हैं...
सब बढ़िया है.....
देखी नार टपकती लार,
ढूंढ रहे सज्जन ये प्यार,
घर में बीवी बच्चों को छोड़
है बाहर में मुंह रहे मार,
टूटे दांत, पोंपला चेहरा पेट हो गया हड़िया है .
सब बढ़िया है....
गाँव छोड़ छोड़ा सुकून,
सब भागम-भाग का रेला है,
उलझा मन ऊँचे भवन देख,
हर काम में यहाँ झमेला है,
मन को तो देती सुकून मेरे गाँव की टूटी माड़िया है..
सब बढ़िया है...
wah wah
ReplyDeletebadhiya hai
sab badhiya hai
बेहरतीन रचना .... बधाई आपको मनोज भाई
ReplyDeleteआपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल मंगलवार के चर्चा मंच पर भी की गई है!
ReplyDeleteसूचनार्थ!
वाह! बहुत बढ़िया....
ReplyDeleteBahut Badhiya....
ReplyDeleteSahi me bahut hi badiya hai.....Bahut khub
ReplyDeleteवाकयी सब बढ़िया है
ReplyDeletebhayi WAAH
ReplyDeleteवाकई सब कुछ बढ़िया हैं!!!
ReplyDeleteकविता का दार्शनिक अंदाज़ बहुत भाया मन को