द्रौपदी महाभारत का एक
केन्द्रीय पात्र है, सम्भवतः सर्वाधिक
महत्वपूर्ण पात्रों में से एक, प्रसंग यह
कि द्रौपदी का चरित्र चित्रण कैसा होना चाहिए, कुछ लोग द्रौपदी के चरित्र
को श्रेष्ठ मानते है, कुछ लोग उसके व्यवहार को मर्यादित
तथा उसे महान सिद्ध करने की चेष्टा
करते हैं, परन्तु मेरे विचार
से यदि ऐसा
ही होता तो द्रौपदी आदर्श, पूजनीय तथा अनुकरणीय हो गई
होती, समाज में अनेक द्रौपदियां रह रही होती, जो
कि नहीं हुई, अतः मेरे अनुसार द्रौपदी का पात्र
एक निंदनीय पात्र है, कैसे थोड़ा समझने का यत्न
करते हैं,
द्रौपदी का आचरण
निदंनीय तभी से हो जाता है, जब वह
स्वयंवर में शर्तो के अनुरूप आचरण करने के बाद भी कर्ण का निरादर कर तिरस्कृत करती है, वह भी
तब जबकि कर्ण
अंगराज था तथा स्वयंवर में आमंत्रित भी था (जाहिर सी बात
है कि कोई भी अनामंत्रित व्यक्ति द्रुपद स्वयंवर में भाग नहीं ले सकता
था), ऐसे में यदि द्रौपदी
को स्वयं से ही किसी का वरण करना था तो स्वयंवर का आडम्बर क्यों तथा यदि कुलशीलों (क्षत्रियों) का
ही वरण करना था, तो अन्यों
को निमंत्रण क्यों….
द्रौपदी को स्वयंवर
में अर्जुन ने जीता, लेकिन बावजूद इसके उसने पांच से विवाह
किया, जो कि पुनः
स्वयंवर की शर्तों के अनुरूप नहीं था, इस बात
को न्यायसंगत ठहराने हेतु अनेक कथाएं प्रचलित की गई, यथा कुन्ती ने कहा कि जो भी मिला हो सब बांट लो, तो क्या
द्रौपदी कोई भोज्य पदार्थ थी जो बंटने के लिए उपस्थित, तत्पर तथा योग्य थी,
यदि यह कथा सत्य भी थी, तो भी
द्रौपदी ने इस बात का विरोध क्यों नहीं किया, वह धर्माचार्यों
के पास अपना पक्ष लेकर क्यों नहीं गई, जैसा कि
उसने द्यूत सभागृह में किया था,
उसने इस प्रस्ताव को सरलता तथा स्वेच्छा से स्वीकार किया, जैसे की उसकी
मंशा भी यही रही हो, चलिए यह मान
भी लिया कि उस समय उसने किसी परिस्थिति वश
इस बात को स्वीकार कर भी लिया था, तो भी
अन्य चार पतियों को सांकेतिक रूप से स्वीकार किया जा सकता था (जैसा कि
कृष्ण ने 16000 रानियों
के साथ किया था), तथा अर्जुन के साथ
सम्पूर्णता के साथ पत्नी धर्म का निर्वहन किया जा सकता
था, परन्तु ऐसा भी नहीं हुआ, द्रौपदी ने ना
केवल पांचो पतियों का वरण किया वरन उनके द्वारा अलग अलग पांच पुत्रों को भी जन्म दिया, यहां द्रौपदी का आचरण
निश्चित रूप से निदंनीय, अव्यावहारिक, अकल्पनीय तथा समाज के तत्कालीत
(यहां तक की वर्तमान भी) निर्धारित नियमों के
विरूद्ध था,
अब आगे
बढ़ते हैं, द्यूत क्रीडा गृह में,
जरा विचार कीजिए, जिस स्त्री के पांडवों
जैसे पांच पति तथा
कृष्ण जैसा एक हितैषी हो, वह निर्बल
व असहाय कैसे हो सकता है, और ऐसे
समय चीरहरण की घटना - क्या पांडवों को निंदा
का पात्र नहीं बनाती, कैसे का-पुरूष थे, कि जब
उनकी पत्नी के सतीत्व पर आघात हो रहा था, तब वे
सर झुकाए मौन बैठे रहे, उनके रक्त में उबाल क्यों नहीं आया,
कोई दीन हीन निर्बल मानव भी होता
तो ऐसी दशा में उठ खड़ा होता, लड़ मरता अपने प्राणो का त्याग
कर देता, परन्तु अपनी स्त्री पर अत्याचार
नहीं सहता, परन्तु ये
निर्लज्ज महामानव सर झुकाए दासत्व का धर्म निभाते रहे, और ऐसे
में सम्मुख खड़ा हुआ विकर्ण,
जो द्रौपदी के पक्ष में बोला, परन्तु संकट के समय
उठ खड़े होने वाले उस राजकुमार का वध भी भीम के हाथो हुआ, और दूसरा
व्यक्ति जिसने उस घड़ी उन्हें सहारा दिया वह,
वह था धृतराष्ट्र …. उसने ना केवल
पांडवों को दासत्व से मुक्त किया वरन उन्हें इन्द्रप्रस्थ नामक स्थल भी राज्य करने हेतु प्रदान कर दिया, लेकिन सोचिए तो बदले
में उसे क्या मिला …
दुर्योधन को राजसूय
यज्ञ में भाग लेने हेतु निमंत्रण दिया गया,
जहां वह परिवार के साथ पहुंचा और वहां पर द्रौपदी ने सिर्फ उसे नहीं अपमानित किया, वरन
धृतराष्ट्र को अपमानित किया, उसने क्या कहा याद तो होगा
ही – अन्धे का पुत्र अन्धा ही होता है . मित्रों, शब्द जब अनायास
निकलते हैं तब वे हृदय के आंतरिक भावों को व्यक्त करते हैं, स्पष्ट है,
द्रौपदी का धृतराष्ट्र के प्रति प्रत्यक्ष
अथवा परोक्ष कोई आदर भाव नहीं था, बावजूद इसके कि
द्यूत क्रीडागृह में उसने उसका पक्ष लिया था, द्रौपदी का यहां
का आचरण पूर्णतः निंदाजनक था, जो अंततोगत्वा
सम्पूर्ण युद्ध वह सम्पूर्ण विनाश का कारण बना…
इसके बाद का भी
एक प्रसंग आता है जब कृष्ण संधि प्रस्ताव
लेकर हस्तिनापुर जाते हैं, जहां दुर्योधन सूई की नोक
के बराबर भी जमीन देने से मना कर देता है, तब कृष्ण
कर्ण को अपने साथ लेकर अपने रथ तक जाते हैं और उसे उसका यथार्थ बताते हैं, जोकि उससे पहले से ही ज्ञात होता है, अब कृष्ण, कर्ण को जो प्रस्ताव देते हैं वह विचाणीय है, कृष्ण कहते हैं
कि यदि कर्ण
उनके पक्ष में आ जाता है तो युद्ध टल जाएगा, कर्ण राजा बनेगा, यहां
तक तो ठीक, परन्तु कृष्ण आगे कहते हैं
कि द्रौपदी पांडवों की सम्मिलित पत्नी है, यदि तुम पक्ष परिवर्तित करते हो, तो वह
तुम्हारी भी सम्मिलित पत्नी बनेगी….. प्रश्न उठता है
कि राज्य के लिए कितना मोलभाव और किस
हद तक मोलभाव, जो कृष्ण
ने प्रस्तावित किया उसमें द्रौपदी की सम्मति ना
रही हो, ऐसा नहीं लगता, क्योंकि बिना सम्मति के
कृष्ण ने ऐसा प्रस्ताव दिया हो यह संभव नहीं, अब सोचिए
तो यदि द्रौपदी
ने छठे पति हेतु
सम्मति दी रही होगी तो यह कैसा निंदाजनक कृत्य था…
अन्ततोगत्वा, इतना ही कहना
उचित होगा, कि द्रौपदी
का चरित्र कैसा भी हो, स्तुति
योग्य तो कदापि नहीं
है, वह रामायण के विभीषण की ही
भांति निंदायोग्य है और सम्भवतः इसी लिए कोई अपनी पुत्री का नाम जैसे विभीषण नहीं रखता वैसे ही द्रौपदी भी नहीं रखता है, कोई उसकी स्तुति
नहीं करता और समाज में भी उसका नाम एक उपहास के अतिरिक्त और कुछ नहीं……. अपने बन्धु-बांधवों
पिता और समस्त पुत्रोँ को गंवा कर उसे मरघट की साम्राज्ञी बनने का सौभाग्य मिला…. बधाई हो द्रौपदी......
(मनोज)
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (06-09-2015) को "मुझे चिंता या भीख की आवश्यकता नहीं-मैं शिक्षक हूँ " (चर्चा अंक-2090) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी तथा शिक्षक-दिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
Ati Aabhar Shastri Ji :)
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