Thursday 15 March 2012

भीख की भेंट

उत्तर प्रदेश के युवा मुख्यमंत्री ने राज्य का कार्य भार सँभालते ही युवाओं को तोहफे में भीख दी !!!........ बेरोजगारी भत्ते के रूप में...... उनसे इसकी अपेक्षा थी, क्योंकि उन्होंने ऐसा ही वादा किया था........और उन्होंने अपना वादा पूरा भी किया........ जय हो दानवीर कर्ण की....... .परन्तु मेरे मन में एक प्रश्न उठता है, कि क्या यही उचित है ? ........ एक अन्य युवा राजकुमार ने प्रश्न किया था की.... "कब तक जाकर अन्य प्रदेशों में भीख मांगोगे ?" ......तो क्या उसके प्रत्युत्तर में, नए मुख्यमंत्री द्वारा राज्य में ही भीख उपलब्ध करवाने का यह एक जतन किया गया है ??.......नहीं ऐसा नहीं है.......यह भीख तो इस पार्टी की सरकार अपने पिछले कार्यकाल में भी दे ही रही थी.....लिहाजा यह तोहमत वाजिब नहीं...... 

दोस्तों, अब यह उन बेरोजगारों के लिए तो उचित ही है जो की काम ना मिलने से हताश थे...........अब शायद यह राशि उन्हें भूखों मरने से तो बचा ही लेगी........  परन्तु जरा सोचिये, क्या यह अधिक उचित नहीं होता की सरकार बेरोजगारी भत्ता देने की बजाय उन्हें कोई ऐसा काम देती जिससे उन्हें आंशिक रूप से ही सही, परन्तु रोजगार मिल सकता......... कोई ऐसी योजना लेकर आती जो उन्हें स्वाभिमान के साथ जीवन यापन करने के अवसर प्रदान करती......कुछ ऐसा सोचती, जिससे सभी वाह वाह कर उठते की एक युवा मुख्यमंत्री एक नई सोच लेकर आया है......  क्या ऐसा करना बिलकुल भी संभव नहीं था अथवा इस दिशा में सोचा ही नहीं गया........मेरे समझ से तो सोचा ही नहीं गया........  पर क्यों ??

बिहार के मुख्यमंत्री ने यहाँ की लड़कियों के लिए सीधे धन मुहैया नहीं करवाया, उन्होंने उन्हें साइकिल दी......उन्हें पोशाक प्रदान की........ .उन्होंने इस बात को समझा की शायद धन देकर वह उनकी रोजमर्रा की उस समस्या का समाधान नहीं कर सकते थे......जो उन्हें स्कूल जाने में होती थी....... साइकिल उनकी इस समस्या का सकारात्मक हल निकालती थी.......जबकि दूसरी तरफ पोशाक उन्हें सभी के समकक्ष होने का एहसास दिलाती थी....और सामाजिक समरसता का मार्ग तलाशती थी....  

मुझे एक जापानी कहावत याद आती है की "किसी को रोज एक मछली देने से  अच्छा है की उसे मछली पकड़ना सिखा दो".........मुझे यह कहने में जरा भी संकोच नहीं की उत्तर प्रदेश के नए मुख्यमंत्री का यह कदम लोक लुभावन तो हो सकता है........तार्किक नहीं....... कहने का सरल तात्पर्य यह की हर माह बेरोजगारी भत्ते को देने से कहीं अच्छा होता अगर सरकार उन्हें पैसे कमाने के अवसर प्रदान करती.....और मुख्यमंत्री ऐसा करने में पर्याप्त रूप से सक्षम भी थे..... परन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया......    

परन्तु, चलिए भाई जाने दीजिये .... ...जिस देश में गरीबी की रेखा ३२ रूपये प्रतिदिन पर आकर ठहरती हो......उसी देश के एक राज्य में पढ़े लिखे बेरोजगारों के लिए ३३.३३ रूपये प्रतिदिन की दर से देकर वहां के मुख्यमंत्री ने यह तो  सुनिश्चित कर ही लिया की वहां के पढ़े लिखे गरीबी रेखा से नीचे ना रह जाएँ .....नहीं तो हो सकता था की वह गरीबी की रेखा के नीचे रहने वालों के समकक्ष अन्य रियायतों की मांग करता......इसी तरह से उन्होंने एक तरह से यह भी इंगित कर दिया की मियां पढ़ लिख तो गए, शादी मत करना......नहीं तो गरीबी रेखा के नीचे चले जाओगे..... और करने की सोचना भी, तो ऐसी लड़की/ लड़के से करना जिसे भी बेरोजगारी भत्ता मिलता हो........ ताकि रोटी चलती रहे.......लेकिन फिर प्रश्न उठता है कि बच्चा हुआ तो ??? 


मनोज   

Wednesday 7 March 2012

होली आई रे...



शीघ्र ले आओ ..
टेसू रंग गुलाल...
होली आई रे...

सबको ढूंढो.
रंगों में भीगे आज... 
भाभी ताई रे... 

रह शालीन..
ना तू कहना लौट..
लाठी खाई रे..

रंग प्रेम का....
मिटा दे सारे द्वेष..  
मेरे भाई रे...... 

हम बेहोश..
हुस्न ने जबसे ली..
अंगड़ाई रे... 

(नो)

Thursday 1 March 2012

एक सराहनीय कदम


अधिक दिन नहीं हुए जब वालमार्ट का समर्थन करने के क्रम में अनेक उत्साही युवक अर्थशास्त्री बन बैठे थे......जिसे देखो उसे यही लगता था मानो की वह किसानों का समर्थक हो और उपभोक्ताओं का परम हितैषी .......परन्तु आज जब बाबा ने रिटेल क्षेत्र में उतरने की घोषणा की तो अनेक चिंतकों को इसमें षड़यंत्र नज़र आने लगा.....उन्हें बाबा का व्यवसाय छलावा दिख्नने लगा.....बाबा की यह बात की वह कुटीर उद्योगों द्वारा निर्मित उत्पाद को भी बाज़ार उपलब्ध करवाएंगे.........उनकी भौतिकवादी सोच दिखने लगी......और मतदाताओं में पैठ बनाने हेतु रची गई एक नई चाल समझ आने लगी ........साबुन तेल बेचने के नाम पर उनका मज़ाक बनाया जाने लगा......और कार्टूनों कि फेहरिश्त जारी कर दी जाने लगी...... .

परन्तु यदि गंभीरता से विचार किया जाए तो यह अत्यंत ही स्वागत योग्य कदम है........देश का लघु और कुटीर उद्योग कब का चौपट हो चुका है......और कभी भी किसी ने उसकी सुध लेने की चेष्टा नहीं की......चंद वर्ष पूर्व ग्रामीण क्षेत्रों में साबुन, तेल, मोमबत्ती, मंजन जैसे उत्पाद बहुतायत में बनते थे और स्थानीय स्तर पर उसका बाज़ार भी पर्याप्त विकसित हुआ करता था......परन्तु विदेशी कंपनियों के आ जाने से इन छोटे उद्योगों को गहरा धक्का पहुंचा ..... विदेशी कंपनियां पूरे दम ख़म से आती हैं...... और जब आती है तो विज्ञापनों के सहारे बाज़ार में लुभावन मायाजाल उत्पन्न करती हैं..........वर्ना एक छोटा उदाहरण लें तो सभी को पता है कि कोई भी क्रीम शरीर पर घिस कर कोई गोरा नहीं होता.........परन्तु हल्दी और चन्दन जैसे उबटन लगाने से त्वचा में कोमलता और कांति अवश्य आती है............परन्तु यहाँ पर प्रतिस्पर्धा में छोटा व्यापारी/ वस्तु उत्पादक, विदेशी कंपनियों के सम्मुख कहीं नहीं ठहरता..........फलतः कुछ दिनों के पश्चात वह स्वयं किसी दुकान पर विदेशी उत्पादों का विक्रय करता हुआ दीखता है........तो दूसरी तरफ स्वदेशी तकनीकी, स्वदेशी जड़ी बूटी और बाबा दादी के नुस्खे....किसी विदेशी प्रयोगशाला में अध्ययन के पश्चात् पेटेंट हो जाते हैं..... ...

अतः यहाँ पर जरूरत थी कि कोई ऐसा होता जो आगे बढ़ कर आता और कहता कि नहीं तुम उत्पादन जारी रखो.....बाज़ार तुम्हें मैं उपलब्ध करवाऊंगा......अथवा ये कि चलो तुम्हारा लागत मूल्य कम करने के लिए मैं मदद करता हूँ......... ताकि तुम बाज़ार में टिककर खड़े रह सको......मूलतः यह काम सरकार को करना चाहिए था.........परन्तु नहीं कोई नहीं आया..... आज बाबा ने जब लघु और कुटीर उद्योगों को बाज़ार उपलब्ध कराने कि बात कि तो मुझे व्यक्तिगत रूप से काफी अच्छा लगा..... उन्हें महज साबुन तेल तक ही सीमित न रहकर आगे बढ़कर असंगठित मजदूर वर्ग के उत्थान के लिए कार्य करना चाहिए....... यदि उनकी मंशा साफ़ है और वह ऐसा करने में सफल हो सके तो निश्चित ही वह न केवल रिटेल बाज़ार में एक प्रभावशाली उपस्थिति दर्ज करायेंगे, वरन देश कि अर्थव्यवस्था में निचले स्तर के यथोचित योगदान को भी सुनिश्चित करेंगे.....इससे एक और जहाँ छोटे उद्योग धंधे पुनः पनप सकेंगे......तो दूसरी ओर रोज़गार के साधनों में आशातीत बढ़ोत्तरी होगी......

परन्तु विरोधों और विरोधियों का क्या.....कुछ लोग तो महज़ विरोध के नाम पर ही विरोध करते हैं..... उन्हें बाबा के हर रूप में छल नज़र आता है......राजनीति नज़र आती है..... मैंने पहले भी कहा था.......राजनीती कोई बुरी चीज़ नहीं बशर्ते उसे सही मंशा के साथ कि जाए...... परन्तु वाह रे देश के महान कालिदासों........आपको तो विरोध का एक बहाना चाहिए...... ...क्या कहने आपके.........परन्तु आपको भी मैं दोष क्यों दूँ ...... जब अपने देश की बासमती भी तभी अच्छी लगती है जब वह विदेशों से पोलिश होकर आती है..... तो देशी बाबा की स्वदेशी भला कहाँ भाएगी आपको .....आप अपना राग अलापना जारी रखें.....परन्तु चंद पलों के लिए ही सही .......सोचियेगा जरूर ........क्या इस बार विरोध करके आप वास्तव में राष्ट्रहित में ही सोच रहे हैं...... .... 



(मनोज)