Tuesday, 29 October 2013

डायरी के पन्‍नों से...


अच्‍छा कहो, जीवन के चालीस साल पूरे होने को कैसे लिया जाना चाहिए ? जश्‍न मना केक कटा और खुशियां भी मनाई गईं, खुशी शायद हम इसलिए मनाते हैं क्‍योंकि हम इतने साल जी पाने में सफल रहे, और उम्‍मीद की जाती है कि हम कुछ और साल जीवित रहेंगे, परन्‍तु क्‍या यह कोई उपलब्धि है ? कोई सफलता है ? मुझे नहीं पता ! सच तो यह है कि मुझे यह भी नहीं पता कि जीवन है क्‍या और जीवन मे सफलता, असफलता और उप‍लब्धियों के मायने क्‍या हैं ? मुझे लगता है कि हम जो इंसान हैं, इस धरती के एक विशेष जीव हैं, परन्‍तु कल्‍पना कीजिए कि यदि हमसे अधिक बुद्धिमान और शक्तिशाली भी कोई जीव होता, तो हमारी हैसियत क्‍या होती, कुत्‍ते, बिल्‍ली, बकरी, सांप, भैंस, मच्‍छर और इसी प्रकार के ही जीवों के समकक्ष !!! संभवतः तब हम उस शक्तिशाली जीव के भोजन के रूप में काम आते, और हमारा अस्तित्‍व उस जीव के रहमोकरम पर निर्भर होता, अतः हम इसे अपनी सौभाग्‍य कह सकते हैं कि हमने इंसान के रूप में जन्‍म लिया और किसी अन्‍य जीव के एक दो प्रहर की खुराक बनने से बचे रह गए, (और यदि समान बुद्धिमत्‍ता के दो जीव होते तब... )

बहरहाल, मेरी उत्‍पत्ति या युं कहें कि मेरा जन्‍म मेरे नियंत्रण में नहीं था, क्‍या ? कैसे ? क्‍यूं ? मुझे ज्ञात नहीं, हां जब समझने लायक हुआ तो इस अजीब सी दुनिया के अनजाने जीवों से खुद को घिरा पाया, यहां लोग थे, भीड थी, और उनके बीच एक मैं, मैं तत्‍व संभवतः जीव में जन्‍म से ही आ जाता है, मुझे यह नैसर्गिक लगता है, इस मैं तत्‍व का बोध और हुआ जब थोडा और बडा हुआ, लगा एक होड है, एक दूसरे से स्‍पर्धा है, आगे निकलने की छटपटाहट है, समय गतिमान रहा, थोडा और बडा हुआ तो पता चला कि यह तो जीने की जद्दोजहद है जिसमें हम उलझे हैं, लेकिन जीने की यह कैसी जद्दोजहद, जब जीना क्‍यूं चाहिए ये ही नहीं पता ? 

लोग पूछते रहते हैं, चर्चा करते हैं कि आप जीवन में क्‍या बनना चाहते हैं ? क्‍या प्राप्‍त करना चाहते हैं ? मुझसे पूछा जाए तो मुझे नहीं पता ! हां सचमुच नहीं पता कि लक्ष्‍य जैसी भी कोई चीज होती है !! मैं तो एक प्रवाह में बहता चला जा रहा है, जीवन रूपी नदी की धारा जिस दिशा में धकेलती है, उधर बढ जाता हूं, जहां रोकती है, वहां रूक जाता हूं और जहां डुबाएगी वहां डूब जाऊंगा, फिर मेरा स्‍वेच्‍छाचार कहां ? जीवन पर मेरा नियंत्रण कहां ? फिर सोचता हूं कि क्‍या मृत्‍यु से मुझे भय लगता है !! उत्‍तर भीतर से ही आता है, रे मूर्ख, मृत्‍यु का तो पता ही नहीं कि होता क्‍या है ! जब जीवन का ही बोध नहीं फिर मृत्‍यु का क्‍या बोध होगा ? और जब बोध नहीं तो भय कैसा !! अतः भय मृत्‍यु का जरा भी नहीं, कल की आती आज जा जाए, उसी की तो प्रतीक्षा है, जब इस अबूझ जीवन का समापन होगा, पर हां उस पीडा से भय अवश्‍य लगता है जैसा लोग इस मृत्‍यु की प्रक्रिया में बताते हैं, यह पीडा तो एक अनुभूति होगी ना और फिर अनुभूति तो होती ही है, तो सोचता हूं कि जब जीवन का आरम्‍भ ही रूदन से होता है और अन्‍त भी कष्‍टकारी ही है, जीवन के मध्‍य कष्‍टो, उलझनों, प्रतियोगिताओ और स्‍पर्धाओं से युक्‍त है, फिर जीवन के कुछ वर्ष सम्‍पूर्ण कर लेने पर हर्षोल्‍लास कैसा और क्‍यूं हर्षोल्‍लास....... और मैं इस जन्‍म दिवस की प्रासंगिकता के बारे में सोचता रह जाता हूं ....जवाब नहीं मिलता !!!


 (मनोज)
30.10.2014   
00.35 A.M.  

5 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज बुधवार (30-10-2013) त्योहारों का मौसम ( चर्चा - 1401 ) में "मयंक का कोना" पर भी है!
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का उपयोग किसी पत्रिका में किया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 31-10-2013 के चर्चा मंच पर है
    कृपया पधारें
    धन्यवाद

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  3. बना लीजिए मित्रवर, जीवन में इक लक्ष।
    बिना लक्ष्य के झगड़ता, अब तो पक्ष-विपक्ष।।

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  4. शास्‍त्री जी, आपके स्‍नेह व चर्चा में स्‍थान देने के लिए सादर आभार

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