मित्रों, जो भी हो, खाद्य सुरक्षा बिल देश के लिए एक आवश्यक्ता है, सरकारी आंकड़े कुछ भी क्यों न कहते हों, अभी भी देश में प्रत्यक्ष गरीबी 50 फीसदी से कम नहीं हैं !!
अभी भी देश के विभिन्न क्षेत्रों में कुपोषण और भुखमरी व्याप्त है, जो
हो सकता है कि अर्थशास्त्र की पुस्तकों में दर्ज न हो, परन्तु यथार्थ के
धरातल पर अवश्य ही विद्यमान है, ऐसे में खाद्य सुरक्षा बिल उन लोगों को
निश्चित रूप से राहत देने का कार्य करेगा, जिन्हें सीमित संसाधनों से अपने
परिवार का संचालन करना पड़ता है, मित्रों एक रूपये और तीन रूपये प्रति
किलो अनाज मिलने की दशा में वह निश्चित रूप से अपने परिवार के उदर पोषण के
प्रति निश्चिंत हो, अपनी अन्य आवश्यक्ताओं की पूर्ति हेतु कार्य करेगा व
देश के विकास में योगदान दे सकेगा, साथ ही अब
तक शिक्षा के नाम पर मध्यान्ह भोजन खाकर मृत्यु को प्राप्त होते देश
के नौनिहालों को शायद अब अपनी माता के हाथ से पके भोजन का आनन्द प्राप्त
हो सके, शायद अब उसके माता पिता इस शंका में दिन न व्यतीत करें कि कहीं आज का भी मध्यान्ह भोजन विषाक्त तो नहीं था ?
मित्रों, हो सकता है कि यह निर्णय राजनीतिक वजहों से लिया गया हो, परन्तु मेरे विचार से इसमें हर्ज नहीं, यदि
राजनीतिक निर्णयों से भी बहुसंख्यक प्रजा का भला होता हो, तो उसे इस आधार
पर खारिज नहीं किया जाना चाहिए कि निर्णय राजनीतिक था और वोट पाने की गरज
से लिया गया था, राजनीतिक दलों का कार्य ही है कि वे
जनोपयोगी कार्य करें और इसके एवज में वोट प्राप्त करने की अपेक्षा को किसी
भी प्रकार से अनैतिक करार नहीं दिया जा सकता है,
परन्तु कुछ चिन्ताएं अवश्य होती हैं –
1- राष्ट्र आखिर कब तक सब्सिडी देकर लोगो को पेट भरता रहेगा ?
साथियों, एक रूपये और तीन रूपये में अनाज नहीं आता है, तो जब सरकार 125000
करोड़ की सब्सिडी देगी, तो मार किसके ऊपर पड़ेगी ? जाहिर है किसी न किसी
के जेब पर तो पड़ेगी ही !! देश के मुखिया ने तो पहले ही बता दिया है, कि
“पैसे पेड़ पर तो उगते नहीं”, और “न ही उनके पास जादू की कोई छड़ी है”, तो
फिर विभिन्न रूपों में टैक्स की मार पड़नी तय है, प्रत्यक्ष या
अप्रत्यक्ष !! फिर देश का मध्यम वर्ग आखिर कहां जाएगा ? किसे रोएगा ?
2- अनाज चूंकि सस्ता दिया जाना है अतः खाद्यान्न का समर्थन मूल्य बढ़ेगा, यह उम्मीद भी बेईमानी हो जाएगी !! तो फिर देश के किसानों का क्या होगा, उनके आमद पर इसका दुष्प्रभाव कैसे नहीं पड़ेगा ?
3- सार्वजनिक वितरण प्रणाली !!! यदि वह दुरूस्त न हुई तो कालाबाजारी भी तय ही मान के चलिए,
भ्रष्टाचार से पल्लवित समाज में गरीब के हिस्से का अनाज उसके पास सही
प्रकार से पहुंच ही जाएगा, यह एक बहुत बड़ा प्रश्न चिन्ह होगा .
फिर एक जापानी कहावत याद आती है कि किसी को “रोज एक मछली देने की अपेक्षा उसे मछली पकड़ना सिखा देना अधिक उपयुक्त होता है”, अतः उपयुक्त यह होगा कि एक
तरफ तो सरकार सस्ती दरों पर अनाज मुहैया कराये और दूसरी ओर गरीब तबके के
लिए उनके उपयुक्त रोजगार की व्यवस्था करने हेतु आवश्यक कदम भी उठाए,
उनके लिए रोजगारोन्मुखी शिक्षा के आवश्यक प्रबंध भी करे, ताकि वे बेहतर
रोजगार प्राप्त करने में सफल हो सकें, देश के लघु और कुटीर उद्योगों की ओर
लौटे ताकि अधिक से अधिक लोगों को रोजगार मिल सके, और एक चरणबद्ध तरीके और दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ शनैः शनैः इस खाद्य सुरक्षा के दायरे को सीमित करते करते समाप्त कर दे, और यदि ऐसा नहीं होता तो क्षमा कीजिएगा, भविष्य में यही खाद्य सुरक्षा बिल एक नासूर बन जाएगा और कभी समाप्त न होने वाले एक रोग की भांति राष्ट्र की देह पर शासन करेगा !!
ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार आरक्षण व्यवस्था है, एक बार लागू करने के
पश्चात उसे समाप्त करने का कोई सामाजिक व राजनीतिक मार्ग नहीं है, उसी
प्रकार यह खाद्य सुरक्षा बिल कभी समाप्त न हो सकने वाला राजनीतिक खिलौना
बन जाएगा, और आने वाले दिनों में अधिक से अधिक राजनीतिक लाभ हेतु यदि एक
रूपये से घटा कर पचास पैसे और मुफ्त अनाज देने की बात भी होने लगे, तो
आश्चर्य मत कीजिएगा, तो शुरू हो जाइये, देश में गरीबों के पेट के रास्ते
से गुजरने वाली सियासत के इस नए चरण को देखने के लिए …
मनोज
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