दोस्तों जीवन के कई दशक बीत जाने के बाद आज जाकर ज्ञान की प्राप्ति हुई.........आज जाके पता चला की हम तो मूर्ख हैं.......महामूर्ख !!! ....... मैं ही क्यों आप भी मूर्ख हैं........हम सभी मूर्ख हैं........मूर्ख होने के साथ साथ फिजूलखर्च भी........अरे जब हमारा गुजारा मात्र ३२ रूपये में हो सकता है......फिर हम इससे अधिक क्यों खर्च करते हैं..........हम क्यों अनाप शनाप खर्च करते जाते हैं.......और इसके बाद भी गरीबी का रोना रोते रहते हैं........कम वेतन का रोना रोते हैं.......सरकार को कोसते हैं.........पेट्रोल, डीज़ल, फल, शब्जियों के बढ़ते दामों को कोसते हैं........परन्तु आज सरकार ने हमें बता ही दिया......कि कितने पैसो की जरुरत होती है........जीवन यापन के लिए.......और वह सच यह है कि ३२ रूपये शहर में और २६ रूपये गाँव में पर्याप्त होते हैं ........
आज सरकार ने बताया की शहरों में यदि किसी की खर्च करने की क्षमता ३२ रूपये और गाँव में २६ रूपये है तो वह व्यक्ति गरीबी रेखा के नीचे नहीं आता......मतलब साफ़ है की ऐसा व्यक्ति गरीब नहीं है ........दूसरा मतलब यह कि वह गरीबी से दूर और ऊपर उठ चुका है........आज अनायास ही मुझे बचपन में पढ़ी एक कहानी याद आ गई......जिसमे एक राजकुमारी जंगल में घूमने गई थी.......और ठण्ड से बचने के लिए वह एक गरीब की झोपडी जलवा देती है....... परन्तु तब उसके पिता जोकि राजा भी थे, ने उसे सत्यता और श्रम के महत्व का एहसास करवाने के लिए राज्य से तब तक के लिए बाहर निकाल दिया था, जब तक की वह अपने श्रम से एक झोपडी ना बनवा दे.......
परन्तु तब की बात और थी और अब की और.......अब ना तो आदर्शवादिता बची है और ना ही नैतिकता जैसी कोई चिड़िया......वर्ना आज भी सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देने के बाद योजना आयोग के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष डंके की चोट पर कहते की हाँ ऐसा संभव है..........३२ रूपये में पौष्टिक आहार मिल सकता है.......नहीं मानते तो कम से कम आगामी एक माह तक हम ३२ रूपये प्रतिदिन की दर पर अपने भोजन की व्यवस्था करके दिखाते हैं........साथ ही वह यह भी कह सकते थे की जब ९६० रूपये प्रतिमाह से जीवन यापन हो सकता है तो हम भविष्य में इससे अधिक वेतन नहीं लेंगे........वैसे तो ये भी हमारे लिए अधिक ही होगा क्योंकि......यात्रा तो हम सरकारी गाड़ियों में करते हैं........और मकान की कोई किश्त हमें देनी नहीं है....... परन्तु ऐसे विचार मन में लाना भी मूढ़ता है.......और सरकार से मूर्खता के अपेक्षा करना इसकी परकाष्ठा ............
परन्तु मेरे मन एक और विचार आता है......की आखिर क्या बात है कि सरकार को ऐसा दुराग्रहपूर्ण हलफनामा देना पड़ा........ ज्यादा सोचने की शायद जरुरत नहीं...........मुझे तो यही समझ आया कि सरकार की कोई गलती है ही नहीं .......सच तो यह है की सरकार को सत्यता और वास्तविकता का ज्ञान ही नहीं है.......अरे गरीबी का दर्द तो वह समझे जिसने गरीबी देखी हो.........भूख की छटपटाहट तो वो समझे जिसे एक वक्त भूखा सोना पड़ा हो.......कहते हैं न........"जाके पैर ना फटी बिवाई वो क्या जाने पीर पराई".........यानी की जिन लोगों ने सदैव चाँदी के चम्मच से दुग्धपान किया हो......उन्हें क्या पता कि २.३३ रूपये में कितना दूध आता है.......और १.०२ रूपये में कितनी दाल ...... अब आप कहेंगे की तो क्या गरीबों को ही देश चलाने का कार्य दे दिया जाए क्योंकि आटे दाल का भाव तो उन्हें ही सर्वाधिक पता होता है........तो मै कहूँगा की मेरे कहने का मतलब ये कदापि नहीं है......
एक अमीर का बच्चा
मुझे फिर एक कथा की याद आती है....... वह यह की एक बार एक व्यक्ति व्यापार करने देश से बाहर गया.......अपने पीछे वह अपनी दो साल की पुत्री और अपनी पत्नी को छोड़ कर गया था......वह व्यक्ति किन्ही कारणों से १५-१६ साल तक अपने देश वापस नहीं लौट पाया........परन्तु जब वह लौटा तो बहुत खुश था......उसने सभी के लिए कुछ ना कुछ लिया था.......अपने सुन्दर उपहारों को देख कर वह फूला नहीं समां रहा था.......परन्तु जब वह घर लौटा तो अपनी पुत्री को पहचान ही नहीं सका.......कारण स्पष्ट था........कि उसकी पुत्री अब सयानी हो चुकी थी.......और उसके लिए वह जो फ्राक बड़े प्यार से खरीद के लाया था वह उसके किसी काम के ना थे.......
मित्रों इस कथा की भांति आज भी दशा कुछ अधिक नहीं बदली है ........आज के देश के कर्णधार भी उस व्यापारी की भांति हैं जो इस गलफहमी में हैं कि कदाचित आज भी वस्तुए उन्ही दामों में मिल रही हैं........जिन दामों में उनके बचपन में मिला करती थी....... उन बेचारों को ये पता ही नहीं की मंहगाई रुपी राक्षसी तो कब की सयानी हो चुकी है........अतः गलती उनकी है ही नहीं.......यथार्थ के धरातल पर आने की उन्हें फुर्सत ही कहाँ है, की वे कुछ समझें..........अब भला सोचिये की सड़को की दशा उस नेता को भला कैसे चल सकती है, जो अपनी साड़ी यात्राएँ हेलिकोप्टर से करता हो......कथन का तात्पर्य यह है प्रधान (मंत्री) जी की आप जनता के पास नहीं जा सकते ......मत जाइये ........नहीं जाते हैं .... उसकी भी जरुरत नहीं .........परन्तु उनकी मुसीबतों का आंकलन करने के लिए तो कम से कम किसी ऐसे व्यक्ति को नियुक्त कर देते जिसका जन्म अर्थशास्त्र की किताबों से ना हुआ हो.......
बहरहाल चलिए छोड़ते हैं.......आपको आपकी हालत और हालात पर.......आपकी बातों से भी कुछ सार्थक जरुर ही निकलेगा.......हो सकता है की अब भूखे पेट सो रहा गरीब इस एहसास के साथ सोये कि सरकारी कागजों में ही सही परन्तु वह अमीर हो गया है.......और आप जैसे वोटों के दरिद्र शायद इस चिंता में जागें कि कहीं आपके द्वारा गढ़ी इस नई परिभाषा ने आपकी अमीरी में सेंध तो नहीं लगा दी........
मनोज
hmm, sabse pehle to itne dino baad tumhari post padhne ko mili bohot acha laga,
ReplyDeleteab aai is garibi ke mudde ki baat, to tark to aaapne sare hi sahi diye hai, sahi kaha garib ye soch ke hi kush ho jayega ki sarkari papaers pe to hum amir hai...
Your comments are bare facts, touching human life conditions of poor and working class. Well timed and beautifully worded and explained in a language used in novels/ write up. Liked it. Keep it up. Good luck...... Parbodh Sood
ReplyDeleteOnce again very nice and heart touching blog...
ReplyDeletesahi likha hai
ReplyDeleteiss tarah toh pata nahi kitne log ameer logo ki list me aa gaye
hamara desh gareeb nahi ahi
bhale hi kaagjon par..... par hum hum gareeb nahi hain
ये गरीबो को गरीब इस लिए बनाये रखते है , जिससे उसके सोंच भी गरीब हो जाये ! बहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत सही मुद्दा उठाया है आपने |जिन लोगों ने यह विचार दिया है उनको यदि ३२ रूपए दे कर जीवन व्यापन करने को कहा जाए तभी वे समझ पाएगें गरीबी क्या चीज है |उन्हें आम आदमी से कोइ मतलब नहीं है बस अपना बोट बेंक मजबूत करने के लिए ही ऐसे मद्दे उछालते रहते हें |
ReplyDeleteआशा
अच्छा और तर्कपूर्ण कटाक्ष किया है आपने ....!
ReplyDeleteagar 32 rs per day ki baat ko sahi samjha jaye to hum garib log fruits khane ki to soch bhi nahi sakte jaise ki kal mai market gai thi apple @ 100/kg lolz
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