Sunday 18 January 2015

समरसिद्धा - एक रोचक गाथा



भाई सन्‍दीप नैय्यर की पुस्‍तक समरसिद्धा लगभग दो माह पूर्व मुझे मिली थी, पुस्‍तक पढने में समय लगा, क्षमा प्रार्थी हूं, परन्‍तु मैं जल्‍दबाजी में पढकर न तो उसके भावों की अवहेलना कर सकता था न ही शीघ्र इस रोचक रस से विमुख होना चाहता था, पुस्‍तक मिलते ही मैंने उसके कुछ पृष्‍ठ पढे, असत्‍य नहीं कहूंगा, मुझे इस पुस्‍तक की भाषा शैली के कारण राहुल सांकृतायन की याद आ गई, उनकी पुस्‍तक वोल्‍गा से गंगा तक की कुछ कहानियों से इस पुस्‍तक की भाषा शैली बेहद निकट है, उपन्‍यास की कथा आठवी शताब्‍दी ईसापूर्व से ली गई इै, इसमें एक प्रवाह के साथ-साथ उस समय के समाज की वर्ण व्‍यवस्‍था पर, उच्‍च तथा निम्‍न जातियों के मध्‍य विभेद पर सशक्‍त प्रहार करने का उपक्रम भी है, कहना अनुचित न होगा, कि यह विभेद काल के भेद को वेधते हुए आज भी हमारे समाज में कहीं न कहीं विद्यमान अवश्‍य है अतः पाठक को झकझोरती है, उसे उद्देलित करती है तथा चिंतन हेतु विवश भी करती है,
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शत्‍वरी एक नवयौवना गुंजन नामक एक शूद्र को संगीत की शिक्षा दिलवाती है, जोकि उस पर भारी पडती है, इसी के कारण उसे समाज द्वारा अनेक प्रकार से अपमानित, दंडित तथा बहिष्‍कृत किया जाता है और फिर उसके प्रतिशोध लेने की गाथा अपने आप में अनूठी है, लेकिन उसके सशस्‍त्र विद्रोह को उसके स्‍वयं के पुत्र का समर्थन प्राप्‍त नहीं होता, परन्‍तु फिर शत्‍वरी का पुत्र प्रेम, उसका अनुराग उसे समाज को उस रूप में परिवर्तित करने में सफल रहता है जिसकी सभी को आकांक्षा होती है, लेकिन रूकिए कथा इतनी भी सीधी व सरल नहीं इसमें मेकल नरेश नील और उसके सेनापाति धनंजय का गुप्‍तचर बनकर कोसल जाना, वहां की संस्‍कृति के बारे जानने समझने की चेष्‍टा तथा फिर उनके अत्‍याचारों से मुक्ति प्रदान करवाने की भी एक अलग कथा है, उपन्‍यास में दो कथाएं एक साथ चलती है जो बाद मे जाकर मिल जाती हैं, परन्‍तु यहां दो बाते बडी अटपटी सी लगती हैं, एक तो राजा और सेनापति का दूसरे राज्‍य में गुप्‍तचर बनकर जाना, जोकि कहीं से भी तार्किक नहीं लगता तो दूसरा यह कि समानान्‍तर चल रहे घटनाक्रम में अचानक ही एक कथा अट्ठारह बीस साल आगे बढ जाती है, और उसके बाद अंतत’ किसी भी कालखंड मे गणिका को पत्‍नी के समकक्ष खडा करना गले के नीचे सरलता से तो नहीं उतरता, हालांकि कथा में नैतिकता की तलाश करना उचित नहीं कहा जा सकता है,
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परन्‍तु इसके अतिरिक्‍त उपन्‍यास के कुछ अंश पढते-पढते ही यह पाठक को वाह वाह करने पर विवश कर देती हैं, जैसे रसों की और प्रमुखता से श्रंगार रस की व्‍याख्‍या लेखक ने कुछ इस प्रकार से की है कि पाठक अनायास ही स्‍वयं को उस रस में डूबता हुआ सा महसूस करने लगता है, इसी प्रकार से प्रेम में निष्‍ठा के महत्‍व को समझाते हुए गुजन के माध्‍यम से लेखक ने अपने सम्‍पूर्ण कौशल का सफलता पूर्वक प्रयोग किया है, ऐसे अनेक अवसर आए जहां किसी एक पृष्‍ठ को बार-बार पढकर आनंदित हुआ जा सकता है, परन्‍तु यह कहते हुए भी मुझे यह कहना होगा कि यदि यही श्रेष्‍ठ शैली सम्‍पूर्ण पुस्‍तक में समाहित की गई होती तो सम्‍भवतः यह पुस्‍तक और अधिक प्रभावी बन पडती, लेकिन यहां भी एक लेकिन था, यदि इसी शैली की निरंतरता रखी जाती तो सम्‍भवतः यह आमजन के लिए दुरूह हो सकती थी, और समझने के लिए भाषाविद की आवश्‍यक्‍ता को जन्‍म देती, अतः जो है वह उचित ही है,
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अन्‍ततः मित्रों मैं इतना ही कहना चाहूंगा कि उपन्‍यास अत्‍यंत ही रोचक है, कथा पाठक को बांधकर रखती है, सामाजिक विभेद पर सटीकता से प्रहार करती है तथा पाठक को अपने आप से जोडकर रखती है, कहीं न कहीं पाठक कभी-कभी स्‍वयं को कथा का पात्रों के निकट पाता है, यह उपन्‍यास की सबसे बडी उपलब्धि है, परन्‍तु इतना सब कहते हुए फिर एक बात और पुस्‍तक में जो बात अटपटी लगती है वह यह कि इसमें न तो लेखक का चित्र है न ही विस्‍तृत जीवन वृत, और तो और इसमें लेख का कोई सम्‍पर्क सूत्र भी नहीं है, अच्‍छे प्रकाशक का यह आचरण अत्‍यंत ही विस्‍मयजनक है, लेखक को उसके हिस्‍से का स्‍थान मिलना ही चाहिए, परन्‍तु इससे इतर आप इस पुस्‍तक को अवश्‍य पढिए, निराश नहीं होंगे,
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(मनोज) 

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