श्रीयुत श्री आतंकियों,
पर कैसा आघात.
घर की मुसरी ढूंढ़ के,
जम के मारो लात…
आतंकी साहेब भए,
हैं सैनिक सरहीन.
नग्नों को लज्जा नहीं,
इनकी अपनी बीन…
स्वमाता के रूदन का,
पिटा ढि़ंढोरा खूब.
निर्धन चूल्हा रोए नित,
क्यूं नहिं मरते डूब…
छीन के चिथड़े देह के,
हाकिम चूसे खून.
अर्थशास्त्री राज में,
हैं मुश्किल दो जून…
स्त्री के अपमान पर,
व्यंग्य भरे अल्फाज.
क्यूं कोई कन्या जने,
लुटवाने को लाज…
मनोज
बेहतरीन.... ख़ास कर आखिर की ४ पंक्तियाँ...बेहतरीन..
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