कोई अपना ज्यों रूठा है,
अभी अभी सपना टूटा है...
एक सुनहरी सी आभा थी,
एक मधुर सी छवि चित्रित
की,
अभी तो था आकाश सजाया,
लगा ज्यों नव जीवन ने
गति ली.
क्षण भर में सम्मोहन
बिखरा,
मन फिर बोला
स्वप्न पराया जग झूठा
है.
नहीं कहो कुछ, कुछ मत
बोलो
अभी अभी सपना टूटा है...
हम थे दौडे, हम थे भागे,
कभी कभी खुद से भी आगे,
दुख था सुख था, हम स्थिर
पर,
पलकों में संसार बसा के.
एक ही झटके में फिर
किसने
इस हृदय के स्पंदन को,
आ लूटा है ?
नहीं कहो कुछ, कुछ मत
बोलो,
अभी अभी सपना टूटा है...
अलसाई आंखों में अब भी,
वही झलक है वही कसक है,
वहीं पे खो जाने को आकुल,
मन की इच्छा भी भरसक है.
आधे अधूरे स्मृत विस्मृत
करते झंकृत
आशाओं के बोझ तले,
अम्बर फूटा है.
नहीं कहो कुछ, कुछ मत
बोलो,
अभी अभी सपना टूटा है...
नहीं रुकूंगा, नहीं
चुकूंगा,
चुप भी नहीं हरगिज
बैठूंगा,
पुनः उठूंगा, पुनः
लडूंगा,
स्वप्न जहां पर फिर
पहुंचूंगा |
गर पाषाण भी है पिघलेगा,
बोल पडेगा
अभी भी एक सवेरा सम्मुख,
कोई नहीं मुझसे रूठा है |
आज नहीं कल पूर्ण पर
होगा,
स्वप्न आज का जो टूटा
है ||
(मनोज)
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