Wednesday, 17 December 2014

नहीं व्‍यथित हूं !!!


कुछ भी कह लो पाषाण हृदय, पशु या अज्ञानी   
या मानवता के नाम पे कोसो पी कर पानी
सत्य हृदय की बात, नहीं बिल्‍कुल विचलित हूं 
रि की पीड़ा पर रूदन करूं क्यूं, नहीं व्यथित हूं


आतंक धर्म सम्बद्ध नहीं जब हम कहते थे
तब आजादी के नाम पे
हिंसक माला तुम जपते थे
तो उपजाए उदर सेजिनको, जाकर हिंसा फैलाएं
जननी को जलाने आज, उसी ने शस्त्र उठाए
फिर क्यूं कहते हो आज ​​कि मैं खुद भी शोषित हूं
रि की पीड़ा पर रूदन करूं क्यूं, नहीं व्यथित हूं


कैसे भूलें अपनी पीड़ा जो दिया है तुमने   
मंदिर, मस्जिद, ही नहीं
हमले संसद पर भी झेले हमने  
लालकिले पर दूषित दृष्टि गई गडाई         
निर्दोषों ने अगणित शहरों में जान गंवाई   
तो आज स्वयं पर पड़ी तो कहतेकि विस्मित हूं
रि की पीड़ा पर रूदन करूं क्यूं, नहीं व्यथित हूं


कायरता का नृत्‍य नग्‍न प्रहार घृणित था
भूमि हमारी पर चढ़ आए
छाया छल विश्‍वास जनित था  
सम्‍मुख समर में शीष झुका पर करी ढिठाई  
सैनिकों के मस्‍तक जब काटे, लाज न आई
आज हो कहते कि आतंक से मैं पीडित हूं
रि की पीड़ा पर रूदन करूं क्यूं, नहीं व्यथित हूं


अभी समय है चलो मेल करके लडते हैं
आतंकी हैं शत्रु सभी के
दोनों ही भिडते हैं
जब मेरा दुख समझोगे तुम, तो तेरी पीडा मेरी होगी
जो भी आंख दिखाए किसी को, उसके विरूद्ध रणभेरी होगी
हां असत्‍य यह तथ्‍य नहीं कि मैं विचलित हूं
अरि हो पर मानवता के कारण मैं बहुत व्‍यथित हूं  

(मनोज)        

3 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शुक्रवार (19-12-2014) को "नई तामीर है मेरी ग़ज़ल" (चर्चा-1832) पर भी होगी।
    --
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. संवेदनशील। ।

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  3. अंतर मं करुणा ले कर भी समुचित उत्तर देना होगा !

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