मित्रों, धर्म एक ऐसा विषय है जो सदैव ही आध्यात्म तथा चिन्तन का माध्यम रहा है | परन्तु आज तो यह चिन्ता और चर्चा का केन्द्र अधिक बना हुआ प्रतीत होता है, लगता है मानो कि यह
धर्म ही समस्त समस्याओं की जननी है ! और यही विभेद का कारक बनी हुई है, आज सरकार और समाज मात्र इसी चिंता में
लिप्त है कि धर्मांतरण अथवा घरवापसी जैसे विषयों की आवश्यकता क्या सचमुच है ?
अच्छा जरा सोचिए तो कि जब आदि काल में मनुष्य का उद्भव हुआ होगा, तब वह
किस धर्म का था ? किसी धर्म का नहीं ना, सम्भवतः उस समय
धर्म जैसी कोई चीज थी ही नहीं, ठीक उसी प्रकार से आज भी मानव इस संसार में बिना किसी धर्म विशेष के ही
जन्म लेता है, परन्तु जन्मते ही उसे किसी न
किसी धर्म विशेष द्वारा आच्छादित कर दिया
जाता है, और हाल यह है कि आज कोई भी ऐसा
व्यक्ति नहीं होगा, जिसका कोई धर्म न हो, तो भला ऐसा कैसे हो सकता है ? प्रकृति प्रदत्त
मौलिक रूप, मौलिक अस्तित्व को विलोपित कर यह रूपान्तरण आखिर किसने किया और क्यों किया होगा, यह
सोचने का विषय है !
अच्छा फिर धर्म की उपयोगिता
क्या है और धर्म की आवश्यक्ता क्यूं ? मेरे अनुसार धर्म को दो
प्रकार से समझा जा सकता है, एक धर्म
वह है जो हमें हमारे जीवन में कर्तव्यों की अनुभूति करवाता है, जैसे हमारा अपने माता पिता के प्रति धर्म, गुरूओं के प्रति धर्म, समाज के प्रति धर्म, मित्र के प्रति धर्म और शत्रु के प्रति
भी धर्म, इस प्रकार का धर्म
वस्तुतः कर्तव्योँ का ही निर्धारणकर्ता है,
संक्षेप में कहें तो हमें
किस प्रकार से आहार, विहार, आचरण, विचरण करना है यह उसकी शिक्षा तथा प्रेरणा प्रदान करता है,
यह जीवन जीने के क्रम हमारे व्यवहार को परिभाषित करता है,
धर्म का दूसरा स्वरूप पूजा पद्यति को
रेखांकित करता है, पूजा अथवा ईश्वर की आराधना,
जिसके उद्देश्य भिन्न हो सकते
है, एक प्रकार की आराधना का उद्देश्य अपने सांसारिक जीवन में सुख तथा शांति की
तलाश के साथ साथ कई बार ऐसी अपेक्षा भी होती है कि अपने
ईश्वर की आराधना से
तथा उनके माध्यम से वह अपने इच्छित फलों की प्राप्ति कर ले, यथा यदि रोगी है तो निरोगी हो जाए, विपन्न है तो सम्पन्न
हो सके आदि आदि, तो पूजा पद्यति
का दूसरा प्रकार मृत्यु के पश्चात के काल के प्रति संशय
से जन्मी अनिश्चितता की उपज है, मनुष्यों के पास स्वर्ग तथा नर्क
की अवधारणा है तो पुनर्जन्म जैसी व्याख्यायें भी हैं जो उसे धर्मोन्मुख करती है, ये ईश्वर
का भय व्यक्ति के भीतर
व्याप्त करती हैं, ऐसे में व्यक्ति ईश्वर की आराधना से अपने मृत्योपरान्त काल के सुख की कल्पना करता है, वह स्वर्ग की कामना करता है तथा ईश्वर
से मोक्ष की अपेक्षा भी पालता है, (यह बात और है कि मेरी
मान्यता है कि स्वर्ग,
नर्क तथा पुनर्जन्म जैसी अवधारणाएं मनुष्यों में नैतिक मूल्यों के समावेश हेतु समाज में समाविष्ट की
गई हैं,)
अब उक्त उद्देश्यों के परिप्रेक्ष्य में धर्म के परिवर्तन का विषय नितान्त ही व्यक्तिगत प्रतीत
होता है, यदि कोई व्यक्ति ऐसा मानता है उसकी
जीवन पद्दति,
उसका धर्म तथा उस धर्म के नियम, उपदेश, दर्शनावली
इत्यादि उसकी अपनी मान्यताओं के अनुरूप नहीं है तथा वह अपने कर्तव्यों का निर्वहन किसी अन्य धर्म की मान्यताओं
को अपनाकर
अधिक श्रेष्ठ प्रकार से कर सकता है तो ऐसे में उसके द्वारा धर्म परिवर्तन में भला क्या अनुचित है ? इसके अतिरिक्त यदि किसी
व्यक्ति को ऐसा भी लगता है कि उसे
स्वयं के धर्म के अतिरिक्त किसी अन्य धर्म की पूजा
पद्दति को अपनाने से अधिक सुख, संतोष तथा शांति प्राप्त हो रही है अथवा हो सकती है तो फिर उसके किसी अन्य धर्म की पूजा
पद्दति को अपनाने में किसी को भी
आपत्ति क्यूं होनी चाहिए ? ठीक इसी प्रकार यदि कोई
व्यक्ति यह मानता है कि ईश्वर
को प्राप्ति का उसका
मार्ग उस मार्ग से भिन्न है, जिस पर वह
जा रहा है, और उसे
ऐसा विश्वास हो
जाता है कि मृत्योपरान्त उसे किसी अन्य धर्म की अनुपालना में सद्गति,
मोक्ष, स्वर्ग इत्यादि प्राप्त
हो सकता है तो उसे उस उपाय को अपनाने से रोकने का भला क्या औचित्य बनता है, यह तो कोई समझाए ? हां यह समझा जा सकता है कि
जिस धर्म में वह वर्तमान में है, उस धर्म के दिग्दर्शक, उसके कर्ता धर्ता अपनी बातें, अपने धर्म का
व्याख्यान, उसकी शिक्षाएं उसे
समझाने का यत्न करें, करना भी चाहिए, परन्तु यदि फिर
भी वह व्यक्त्िा
सन्तुष्ट न होता हो (अथवा उससे
पूर्व भी) तो आप ही कहिए कि उसे
भला कैसे और क्यूं रोका जाना चाहिए ? और ऐसा अधिकार
किसी को क्यों प्राप्त होना चाहिए, जो किसी सामान्य व्यक्ति के सामान्य सी
जीवन पद्दति में विघ्न डालता हो ?
अब इन्हीं बातों में
कई बार एक और तथ्य उभर कर सामने आ जाता है, प्रायः ऐसा कहा जाता है
कि कुछ धर्मों के लोग अन्य धर्मावलंबियों को विभिन्न प्रकार के प्रलोभन देकर, धन देकर
एवं अन्य प्रकार की सुख सुविधाएं प्रदान करके अथवा उसका आश्वासन देकर अपने धर्म की ओर आकर्षित करते हैं, और धर्मान्तरण करवा रहे हैं | मुझे लगता है कि यदि कोई व्यक्ति प्रलोभन प्राप्त करके भी अपना
धर्म परिवर्तित करता है, तो इसमें
अनुचित क्या है, यदि किसी धर्म को अपनाने
से लौकिक सुखों की प्राप्ति की जा
सकती है और यदि किसी
व्यक्ति का ध्येय वही है तो उसे उस धर्म को निश्चित रूप से अपना लेना चाहिए,
वरन मैं तो कहूंगा कि यह
प्रलोभन एक प्रकार से प्रतियोगात्मक होनी चाहिए, वह इस
प्रकार से कि यदि अमुक
धर्म के मतावलंबियों को कुछ अधिक सुविधाएं मिल रही है, उनका जीवन स्तर अधिक अच्छा है,
तो दूसरे धर्म के संचालक, आचार्य, दिग्दर्शक अपने धर्मों मे भी तद्नुसार सुधार करें तथा उसे उन्नत बनाएं, वे अपने धर्म में अपेक्षाकृत अधिक सुविधाएं प्रदान करें, ताकि व्यक्ति उनके धर्म के प्रति आकर्षित हो सके, उदाहरणतः ऐसा हो सकता है कि वे
अपने हस्पताल खोले और अपने धर्मावलंबियों को निःशुल्क चिकित्सा सुविधा प्रदान करें, उनके लिए सामान्य तथा उच्च शिक्षा
हेतु विद्यालय खोलें, जिसमें निःशुल्क शिक्षा प्रदान की जाए, यदि ऐसा
हो सके तो यह एक स्वस्थ प्रतियोगिता होगी और ऐसे में किसी के धर्म परिवर्तन पर किसी को आपत्ति भी नहीं होनी चाहिए, यदि लोगों को अपने धर्म में ही रोकना है अथवा अपने साथ
मिलाना है तो अपने धर्म को उन्नत करो, साधारण और सरल |
इसे किसी सेवा क्षेत्र की कम्पनी
के उदाहरण द्वारा अधिक सरलता से समझा जा सकता है, देश में बैंकिंग तथा दूरसंचार कम्पनियां हैं जो सेवा
प्रदान करने में एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा करती हैं, ऐसे में जब कोई
व्यक्ति अपने बैंक अथवा दूरसंचार कम्पनी को छोड़कर किसी अन्य संस्थान की सेवा लेता है, उसके साथ अपना संचालन आरम्भ कर लेता है तब
इसे सहजता तथा सामान्य भाव से लिया जाता है,
सब स्वतः ही समझ जाते हैं कि अधिक सुविधाओं की खोज में उसने अपने सेवाप्रदान
कर्ता को परिवर्तित कर लिया है, वस्तुतः देखा
जाए तो किसी इस प्रकार की कम्पनी की सेवाओं तथा धर्म की विविधताओं में कोई विभिन्नता नहीं
वरन अनेकानेक समानताएं है, जिस प्रकार से किसी क्षेत्र विशेष में कार्यरत सभी कम्पनियां लगभग एक प्रकार
की सेवा प्रदान करती है, उसी प्रकार से सभी
धर्मों की शिक्षाओं तथा मान्यताओं में मात्र सूक्ष्म विभेद ही व्याप्त है,
अतः उक्त के परिप्रेक्ष्य
में धर्मान्तरण, जिसे एक बड़ा मुद्दा तथा युद्ध का कारक माना जाता है, वह तो
यह सहज, सरल व
सामान्य प्रक्रिया होनी चाहिए | यह एक व्यक्तिगत स्वतंत्रता का प्रश्न होना चाहिए, जिसमें किसी
का हस्तक्षेप अनावश्यक, अनापेक्षित तथा अस्वीकार्य होना चाहिए | धर्मान्तरण किसी समारोह इत्यादि
का विषय होना ही नहीं चाहिए | वैसे तो इसकी आवश्यक्ता नहीं परन्तु यदि आवश्यक
हो तो धर्मान्तरण के पंजीकरण की व्यवस्था भी शुरू की जा सकती है, जिससे किसी प्रकार के संशय का भी समाधान
हो सके | मित्रों, आज आवश्यक है कि समाज
जागरूक हो और इस प्रकार के अनावश्यक प्रलापों में अपना धन, समय तथा ऊर्जा नष्ट न करते
हुए रचनात्मक कार्यों में अपनी ऊर्जा लगाए
तथा व्यक्तिगत विषयों को व्यक्त्िा तक ही रहने दे, राजनीति के लिए कई अनेक विषय
और भी हैं ना...
मनोज कुमार श्रीवास्तव