
प्रश्न उठता है कि आखिर पहले चरण को सफलतापूर्वक निबाहने
के बाद चूक कहां हुई ?
पहली बार हुए अन्ना के अनशन को और बाबा रामदेव के आन्दोलन को सरकार ने गम्भीरता
से लिया, पूरे देश में उठे जनाक्रोश ने कहीं न कहीं उनकी नींद हराम भी कर दी, फलतः
अन्ना के लिए सदन का सत्र आगे बढाया गया, एक प्रस्ताव तक पास किया गया, बाद में लोकपाल
बिल लाया गया, उस पर चर्चा भी की गई, परन्तु अफसोस बिल राज्यसभा में जाकर लटक
गया, कारण सरकार के पास बहुमत न होना और विपक्ष की मॉंगों के आगे न झुकना बताया गया,
लेकिन यह उतनी सच बात नहीं थी !!
परन्तु यह क्या !!! अगले कुछ दिनों में फिजां बदली-बदली क्यों नजर आने लगी ?? 27 दिसम्बर से मुम्बई
मे तीन दिनों का अन्ना का अनशन दो दिन में ही डाक्टरी सलाह पर ! या युं कहें की भीड़ न
जुटने की हताशा में समाप्त हो गई, और उसके पश्चात!! उसके पश्चात जो हुआ, उसे एक बार फिर से याद कर लीजिए, अन्ना
दो दिनों के भीतर ही हस्पताल पहुंच गए, बीमारी विशेष नहीं थी परन्तु फिर भी कई
दिन लग गए, इलाज करने वाले डाक्टर संचेती को पद्म विभूषण्ा से नवाजा गया !!! और इस बीच चार राज्यों
के चुनाव कब बीत गए, किसी को याद नहीं, अब यहां पर अन्ना ने क्या किया, यह मत
देखिए, यह सोचिए उन्होंने क्या नहीं किया, जी हां वे चार राज्यों में चुनाव
प्रचार करने वाले थे, जो उन्होंने नहीं किया, कारण बीमारी, क्या सचमुच, कहीं ये बीमारी
का बहाना तो नहीं था, उस वक्त तक मेरा शक आंशिक था, परन्तु हाल में घटी घटनाओं ने
मेरा शक यकीन में तब्दील दिया, कैसे, आइये देखते हैं –
सोचिए जरा, यदि अन्ना का आन्दोलन जारी रहता, तो लाभ
किसका था
?? अधिक मंथन
की आवश्यक्ता नहीं, यकीनन प्रमुख विपक्षी दल होने के नाते लाभ भाजपा के खाते में
जाना तय था, अधिक संभावना थी कि आगामी लोकसभा चुनावों में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर
उभरती, शायद सहजता से सरकार भी बना सकती थी, परन्तु नौ दिनों के नवरात्र व्रत के पश्चात और एक राजनीतिक दल बनाने
की घोषणा के बाद राजनीतिक गिरगिट किस करवट बैठेगा, अन्दाजा लगाना कठिन नहीं है, ऐसे
में सरकार विरोधी मतों का बंटवारा होना तय है, अन्ना का दल किसी और के नहीं बल्कि
भाजपा और एनडीए के मतों में से अपना हिस्सा लेगा, और जहां एक फीसदी मतों का अन्तर
ही राष्ट्रीय परिदृश्य पर पर्याप्त हलचल करने में सक्षम हो, वहॉं ये बंटवारा किसी
भी हाल में भाजपा को सत्ता में नहीं आने देगा, शायद इस करवट को भाजपा ने पहले ही भांप
लिया था, लिहाजा इस बार के आन्दोलन में भाजपा के किसी नेता ने चूं तक नहीं किया, और
हाल में शायद आडवाणी जी ने इसी के मद्देनजर अपने ब्लाग में कांग्रेस और भाजपा किसी
के भी सत्ता में आने से इन्कार किया है,

मनोज
बहुत अच्छी प्रस्तुति!
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राजनीति भी एक खेल है, मानसिक खेल और इसमें शह मात का चक्र भी चलता ही रहता है, अन्ना और बाबा के आन्दोलन भी कहीं न कहीं इसी राजनीतिक और मानसिक द्वंद के खेल कहे जा सकते हैं, जिसके बारे में सबसे पहले हमें दिग्विजय सिंह ने बताया,"मनोज जी ,मानसिक द्वंद्व कर लें.आपके आलेख और अभिमत के बारे में इतना ही इस देश में आइन्दा दुर-मुख ही श्रेष्ट कहलायेंगे ?वैसे नौ अगस्त दूर नहीं है राम देव जी क्या करेंगे सामने आ रहा है .१५ अगस्त इससे असर ग्रस्त हुए बिना न रहेगा ऐसा कुछ विज्ञ जनों का अनुमान है .
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ram ram bhai
सोमवार, 6 अगस्त 2012
भौतिक और भावजगत(मनो -शरीर ) की सेहत भी जुडी है आपकी रीढ़ से
साजिश की आशंका को एक्दम खारिज नही किया जा सकता लेकिन इस साजिश थ्योरी मे कई छेद भी है। इस तरह अन्ना के राजनैतिक दल खड़ा करने की नौबत आने देने मे भाजपा की भ्रष्टाचार मे लिप्तता और नकारे पन का भी बहुत बड़ा योगदान है। जब भाजपा विपक्ष और सत्ता के योग्य उम्मीदवार के रूप मे उभरने मे नाकाम है तो इस वैक्यूम को पूरा भी भरा जा सकता है। रही बात कांग्रेस की तो किसी भी सूरत मे उसे इस नये राजनैअतिक दल का फ़ायदा मिलने वाला नही है। आप शायद इस तथ्य को भी नजर अंदाज कर रहे है कि कांग्रेस का मूळ वोट बैक मुसलमान विकल्प मिलने पर कांग्रेस को पूरी तरह एक मुश्त छोड़ भी देते है। बिहार और यूपी इसके सशक्त उदाहरण है ऐसे मे हिंदि भाषी जिन क्षेत्रो मे आज भाज्पा छोड़ कोई ताकत नही है वहा का अपना अंतिम फ़िक्स वोट बैंक खोने का खतरा कांग्रेस किसी भी दिन नही उठायेगी यह उसके पार्टी के रूप मे अस्तित्व पर ही सवाल खड़ा कर सकता है। वैसे आगे के घटनाक्रमो से ही वास्तविकता का सटीख अंदाजा लगेगा लेकिन तब तक गैर भाजपा गैर कांग्रेस भ्रष्टाचार विरोधी नया दल स्वागत योग्य ही है नकारने से जनता को वैसे भी कुछ मिलने वाला नही है
ReplyDeleteउम्दा प्रस्तुति
ReplyDeleteउम्दा प्रस्तुति ,विपक्ष कमजोर तो गलती किसकी है ,जब यही बात थी तो ,बी जे पी को खुल कर समर्थन ना देना ,किसकी भूल है ,यानी ,अपने पाँव पर कुल्हाड़ी मारना ,शयद इसी को कहते है
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