Thursday 21 June 2012

राष्‍ट्रपति के बहाने नी‍तीश-मोदी के निशाने


बिहार के मुख्‍यमंत्री नीतीश कुमार ने अचानक ही अरस्‍तू, प्‍लूटो, मैकियाबली इत्‍यादि की भॉंति एक दार्शनिक की राह पकड़ते हुए अपनी ओर से एक आदर्श राज्‍य की अवधारणा प्रस्‍तुत की, वह एक आध्‍यात्मिक संत की तरह से आये और एक अंग्रेजी अखबार को साक्षात्‍कार का माध्‍यम से एक आदर्श राजा के गुण बताये, हालोंकि उन्‍होंने ऐसा कुछ नहीं बताया जो कि नया हो, आपत्तिजनक हो अथवा निंदनीय हो, परन्‍तु जिन्‍हें क्‍लेश करना है, वो तो करेंगे ही, लिहाजा ऐसा ही हुआ, नीतीश का आदर्श राजा धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक मूल्‍यों में विश्‍वास रखने वाला, सभी को साथ लेकर चलने वाला तथा सिर्फ विकसित राष्‍ट्र को विकसित करने का दंभ न भरने वाला होना चाहिए, लोग कहते हैं कि वह परोक्ष रूप से गुजरात के मुख्‍यमंत्री नरेंद्र मोदी की बात कर रहे थे, जबकि मुझे लगता है कि वह परोक्ष रूप से अपनी बात कह रहे थे, वह अपनी उस छवि को प्रदर्शित करना चाह रहे थे, जैसा कि उन्‍हें लगता है कि उनकी है,

आइये अब जरा नी‍तीश के बयान के निहितार्थ तलाशने का यत्‍न करते हैं, प्रश्‍न उठता है कि अचानक से क्‍या आवश्‍यक्‍ता आन पड़ी कि नीतीश को एक आदर्श राजा की तत्‍काल खोज अपरिहार्य प्रतीत होने लगी, वह भी तब जबकि निकट में प्रधानमंत्री का नहीं वरन राष्‍ट्रपति का चुनाव होना तय है, राजग पहले ही उहापोह में है, कलाम कन्‍नी काट गए और ममता हाथ मलती रह गई, समता ने प्रणव राग अलापा तो शिवसेना ने कोरस गाने में तनिक भी देर न लगाई, थकहार भाजपा ने रस्‍मअदायगी हेतु संगमा संग संगम का मूड बनाया परन्‍तु यहॉं कारण संगमा को राष्‍ट्रपति बनाना कम, जयललिता और पटनायक जैसे पुराने साथियों को एन,डी,ए, से पुनः जोड़ने की कवायद अधिक नजर आई, वह भी उस परिप्रक्ष्‍य में जबकि नीतीश रोज ही आंख तरेरते हुए यह संकेत दे रहे है कि मोदी के प्रधानमंत्री का पद का दावेदार बनने की दशा में वह एन.डी.ए. का त्‍याग कर सकते हैं, तो क्‍या एन.डी.ए. राष्‍ट्रपति चुनाव के बहाने नए साथी तलाश रहा है ? तो क्‍या राष्‍ट्रपति चुनाव के बहाने समता पार्टी एन.डी.ए. से किनारा करना चाह रही है ? शायद इन दोनों ही प्रश्‍नों का जवाब हॉं में ही है,

आइये इससे भी आगे की संभावना पर चलते है, नीतीश और मोदी क्‍या सचमुच के शत्रु हैं, दिखता तो ऐसा ही है, फिर दो श्रेष्‍ठ लोगों के सर्वश्रेष्‍ठ होने की होड़ होने की संभावना से इंकार भी नही किया जा सकता, एक ओर जहां नीतीश ने भोज देने के पश्‍चात थाली खींच ली, मोदी द्वारा दी गई बाढ़ पीडि़तों को मदद वापस भिजवा दी और उन्‍हें बिहार आने से कई बार रोका, तो दूसरी तरफ मोदी ने गुजरात में बिहार दिवस मनाया पर नीतीश को नहीं बुलाया और इसके बाद बिहार के नेताओं पर जातिवाद का आरोप लगा कर कह दिया कि बिहार के पिछड़ने का कारण वे ही हैं, इस पर नी‍तीश का तिलमिलाना स्‍वाभाविक था, लिहाजा उन्‍होंने चुन-चुन कर आदर्श राजा के उन सभी गुणों को रेखांकित किया, जो कि उनके अनुसार मोदी में हैं ही नहीं, इस पर मोदी की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा है,

परन्‍तु क्‍या यह खेल इतना ही सरल है जितना दिखता है, राजनीति में कभी दो और दो चार होते ही नहीं है, तो फिर यहॉं कैसे हो सकता है, आखिर लुधियाना में हाथ उठाते और मुख्‍यमंत्रियों के सम्‍मेलन में हाथ मिलाते इन दोनो महारथियों की उन छवियों को कैसे खारिज किया जा सकता है जो इन दोनों के मध्‍य इतना अधिक असहज होने के संकेत नहीं देती, ये दोनों बेशक ढ़ाल से तलवार की तरह ही मिलते हों, पर मिलते अवश्‍य हैं, फिर आज नी‍तीश के बयान का समय और मोहन भागवत का हिन्‍दुत्‍ववादी नेता के पक्ष में दिए गए बयान कुछ और ही कहानी बयां कर रहे हैं,

सच तो यह है कि यह सब कवायद 2012 में गुजरात में होने वाले चुनावों की पृष्‍ठभूमि तैयार करती अधिक लगती है, नीतीश का बयान मोदी के पक्ष में वोटों का ध्रुवीकरण करने में सहायक सिद्व होगा, आपको याद ही होगा, सोनिया गांधी के "मौत के सौदागर" वाले बयान के पश्‍चात बाजी किस तरह पलटी थी, अब नीतीश के आदर्श राजा के बयान ने मोदी को स्‍वाभाविक रूप से प्रधानमंत्री पद का दावेवाद बना दिया है, गुजरात के लोग निश्चित रूप से नी‍तीश के बयान को अपनी अस्मिता से जोड़कर देखेंगे और मोदी के नाम पर लामबंद होंगे, यही तो नीतीश ने भी पिछले चुनावों में किया था, जब उन्‍होंने मोदी को बिहार न आने देकर अपने पक्ष में वोटों का ध्रुवीकरण कराया था, तो क्‍या नीतीश और मोदी चुनावों के मौसम में एक दूसरे के सहयोग की नीति पर चल रहे हैं, निष्‍कर्ष तो यही निकलता है कि एक बार फिर मोदी गुजरात पर विजय पताका लहराने जा रहे हैं, और यह उसकी प्रस्‍तावना है,

परन्‍तु फिर प्रश्‍न उठता है कि आखिर दिल्‍ली के रण का क्‍या होगा, क्‍या नीतीश के समर्थन से या उनके बिना समर्थन के मोदी प्रधानमंत्री बन सकते हैं, तो उसका भी हल मौजूद है, भाजपा चाहे तो यह घोषणा कर सकती है कि मोदी भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्‍मीदवार होंगे, अर्थात यदि अकेले भाजपा को पूर्ण बहुमत मिलता है तो मोदी प्रधानमंत्री होंगे, परन्‍तु यदि भाजपा को पूर्ण बहुमत नहीं मिलता और एन.डी.ए. की आवश्‍यक्‍ता पड़ती है तो प्रधानमंत्री चुनावों के बाद एन.डी.ए. की बैठक में तय किया जाएगा, इस प्रकार से सांप भी मर जाएगा और लाठी भी नहीं टूटेगी, अर्थात मतों का ध्रुवीकरण भी हो जाएगा और गठबंधन भी बरकरार रहेगा, परन्‍तु क्‍या आपको ऐसा होता दिख रहा है, मुझे तो नहीं दिखता क्‍योंकि आज भाजपा वह नाव बन गई है जिसमें कई खेवैये एक साथ बैठे हैं और वे सभी नाव को अपने मंतव्‍य के हिसाब से अपने निर्धारित लक्ष्‍यों की प्राप्ति हेतु अपनी अपनी दिशाओं में खे रहे हैं, लिहाजा वे स्थिर हो गये हैं और कदाचित डूबने का खतरा भी उत्‍पन्‍न होता जा रहा है,

बहरहाल राजनीति का शो जारी है, ऊंटों की नहीं, गिरगिटों की करवटों का इन्‍तजार कीजिए,

मनोज        

6 comments:

  1. सवाल ये नहीं कि नीतिश क्या बोल रहें है ..सवाल ये है कि वे क्यूँ बोल रहे हैं । खैर अभी नीतिश लोकप्रियता के मामले में मोदी से कोसों पीछे हैं और बिहार में ही उनकी स्वीकार्यता बीजेपी के सहयोग से ही है सो उनका बयान केवल उथला है और स्वयं को राष्ट्रीय मीडिया में चर्चित रखने का प्रपोगंडा मात्र है । बिहार में नीतिश राज में कितना विकास हुआ है ये किसी से छुपा नहीं है । वो केवल इसलिए जीत कर आये हैं क्योंकि लालू ने बिहार को नरक बना दिया था और कुछ ना करना भी बिहार के लोगों को सुख की अनुभूति दे रहा है ।

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    1. सच कहते हैं आप, जितना प्रचारित किया गया है, बिहार का विकास उस मुकाबले एक बड़ा शून्‍य है , आज भी देश में सर्वाधिक गरीबी का प्रतिशत (सरकारी आंकड़ों के हिसाब से 53,5 प्रतिशत) यहीं पर हैं, बिजली की हालत यह है कि पटना में भी 16-18 घंटे से अधिक नहीं रहती, बाकी स्‍थलों पर 4 से 6 घंटे, उद्योग धंधे, कृषि, रोजगार सभी में बुरा हाल है, विकास का वास्‍तविक अनुमान आप सहज लगा सकते हैं,

      लोग सच कहते हैं, मीडिया जिसे न चढ़ा दे

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  2. सास बहू और साजिश सीरीयलो मे आप काफ़ी सगल लेखक बन सकते है मियां

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    1. दवे भाई इसे तारीफ समझूं या निन्‍दा, ये समझ नहीं आया

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  3. बहुत अच्छा विश्लेषण लिखा है आपने...एक सामान्य प्रचलित धारणा है की यदि आप जल्द ही खुद को प्रचारित करना चाहते हैं तो सबसे आसान तरीका है उस वक़्त के शीर्षस्थ या लोकप्रिय व्यक्ति या वस्तु का विरोध करना शुरू कर दीजिये..मामला कुछ हद तक ऐसा ही संकेत कर रहा है...किन्तु दूसरी बात यह भी सामने आ रही है की क्षेत्रीय दलों के बढ़ते वर्चस्व और राष्ट्रीय पार्टियों की घटती लोकप्रियता से यह बहुत हद तक यह संकेत आ रहा है की आगामी चुनावों में भी किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नही मिलेगा ,,और किसी भी नेता की सर्वमान्य छवि न होना..पुन : राजनैतिक अस्थिरता की स्थिति को जन्म देगी

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    1. क्षेत्रीय दल अपनी कम संख्‍या के बावजूद राष्‍ट्रीय स्‍तर पर सर्वोच्‍च पद पाने की लालसा रखते हैं, और कुछ घटनाओं ने इन सपनों को बढ़ावा भी दिया है झारखंड का उदाहरण हमारे सामने है जहां एक निर्दलीय को मुख्‍यमंत्री बना दिया गया,

      परन्‍तु इस तरह की घटनायें ने केवल भ्रष्‍टाचार को पोषित करती हैं वरन देश की स्थिरता को भी खतरे में डालती हैं

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