Thursday, 15 March 2012

भीख की भेंट

उत्तर प्रदेश के युवा मुख्यमंत्री ने राज्य का कार्य भार सँभालते ही युवाओं को तोहफे में भीख दी !!!........ बेरोजगारी भत्ते के रूप में...... उनसे इसकी अपेक्षा थी, क्योंकि उन्होंने ऐसा ही वादा किया था........और उन्होंने अपना वादा पूरा भी किया........ जय हो दानवीर कर्ण की....... .परन्तु मेरे मन में एक प्रश्न उठता है, कि क्या यही उचित है ? ........ एक अन्य युवा राजकुमार ने प्रश्न किया था की.... "कब तक जाकर अन्य प्रदेशों में भीख मांगोगे ?" ......तो क्या उसके प्रत्युत्तर में, नए मुख्यमंत्री द्वारा राज्य में ही भीख उपलब्ध करवाने का यह एक जतन किया गया है ??.......नहीं ऐसा नहीं है.......यह भीख तो इस पार्टी की सरकार अपने पिछले कार्यकाल में भी दे ही रही थी.....लिहाजा यह तोहमत वाजिब नहीं...... 

दोस्तों, अब यह उन बेरोजगारों के लिए तो उचित ही है जो की काम ना मिलने से हताश थे...........अब शायद यह राशि उन्हें भूखों मरने से तो बचा ही लेगी........  परन्तु जरा सोचिये, क्या यह अधिक उचित नहीं होता की सरकार बेरोजगारी भत्ता देने की बजाय उन्हें कोई ऐसा काम देती जिससे उन्हें आंशिक रूप से ही सही, परन्तु रोजगार मिल सकता......... कोई ऐसी योजना लेकर आती जो उन्हें स्वाभिमान के साथ जीवन यापन करने के अवसर प्रदान करती......कुछ ऐसा सोचती, जिससे सभी वाह वाह कर उठते की एक युवा मुख्यमंत्री एक नई सोच लेकर आया है......  क्या ऐसा करना बिलकुल भी संभव नहीं था अथवा इस दिशा में सोचा ही नहीं गया........मेरे समझ से तो सोचा ही नहीं गया........  पर क्यों ??

बिहार के मुख्यमंत्री ने यहाँ की लड़कियों के लिए सीधे धन मुहैया नहीं करवाया, उन्होंने उन्हें साइकिल दी......उन्हें पोशाक प्रदान की........ .उन्होंने इस बात को समझा की शायद धन देकर वह उनकी रोजमर्रा की उस समस्या का समाधान नहीं कर सकते थे......जो उन्हें स्कूल जाने में होती थी....... साइकिल उनकी इस समस्या का सकारात्मक हल निकालती थी.......जबकि दूसरी तरफ पोशाक उन्हें सभी के समकक्ष होने का एहसास दिलाती थी....और सामाजिक समरसता का मार्ग तलाशती थी....  

मुझे एक जापानी कहावत याद आती है की "किसी को रोज एक मछली देने से  अच्छा है की उसे मछली पकड़ना सिखा दो".........मुझे यह कहने में जरा भी संकोच नहीं की उत्तर प्रदेश के नए मुख्यमंत्री का यह कदम लोक लुभावन तो हो सकता है........तार्किक नहीं....... कहने का सरल तात्पर्य यह की हर माह बेरोजगारी भत्ते को देने से कहीं अच्छा होता अगर सरकार उन्हें पैसे कमाने के अवसर प्रदान करती.....और मुख्यमंत्री ऐसा करने में पर्याप्त रूप से सक्षम भी थे..... परन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया......    

परन्तु, चलिए भाई जाने दीजिये .... ...जिस देश में गरीबी की रेखा ३२ रूपये प्रतिदिन पर आकर ठहरती हो......उसी देश के एक राज्य में पढ़े लिखे बेरोजगारों के लिए ३३.३३ रूपये प्रतिदिन की दर से देकर वहां के मुख्यमंत्री ने यह तो  सुनिश्चित कर ही लिया की वहां के पढ़े लिखे गरीबी रेखा से नीचे ना रह जाएँ .....नहीं तो हो सकता था की वह गरीबी की रेखा के नीचे रहने वालों के समकक्ष अन्य रियायतों की मांग करता......इसी तरह से उन्होंने एक तरह से यह भी इंगित कर दिया की मियां पढ़ लिख तो गए, शादी मत करना......नहीं तो गरीबी रेखा के नीचे चले जाओगे..... और करने की सोचना भी, तो ऐसी लड़की/ लड़के से करना जिसे भी बेरोजगारी भत्ता मिलता हो........ ताकि रोटी चलती रहे.......लेकिन फिर प्रश्न उठता है कि बच्चा हुआ तो ??? 


मनोज   

Wednesday, 7 March 2012

होली आई रे...



शीघ्र ले आओ ..
टेसू रंग गुलाल...
होली आई रे...

सबको ढूंढो.
रंगों में भीगे आज... 
भाभी ताई रे... 

रह शालीन..
ना तू कहना लौट..
लाठी खाई रे..

रंग प्रेम का....
मिटा दे सारे द्वेष..  
मेरे भाई रे...... 

हम बेहोश..
हुस्न ने जबसे ली..
अंगड़ाई रे... 

(नो)

Thursday, 1 March 2012

एक सराहनीय कदम


अधिक दिन नहीं हुए जब वालमार्ट का समर्थन करने के क्रम में अनेक उत्साही युवक अर्थशास्त्री बन बैठे थे......जिसे देखो उसे यही लगता था मानो की वह किसानों का समर्थक हो और उपभोक्ताओं का परम हितैषी .......परन्तु आज जब बाबा ने रिटेल क्षेत्र में उतरने की घोषणा की तो अनेक चिंतकों को इसमें षड़यंत्र नज़र आने लगा.....उन्हें बाबा का व्यवसाय छलावा दिख्नने लगा.....बाबा की यह बात की वह कुटीर उद्योगों द्वारा निर्मित उत्पाद को भी बाज़ार उपलब्ध करवाएंगे.........उनकी भौतिकवादी सोच दिखने लगी......और मतदाताओं में पैठ बनाने हेतु रची गई एक नई चाल समझ आने लगी ........साबुन तेल बेचने के नाम पर उनका मज़ाक बनाया जाने लगा......और कार्टूनों कि फेहरिश्त जारी कर दी जाने लगी...... .

परन्तु यदि गंभीरता से विचार किया जाए तो यह अत्यंत ही स्वागत योग्य कदम है........देश का लघु और कुटीर उद्योग कब का चौपट हो चुका है......और कभी भी किसी ने उसकी सुध लेने की चेष्टा नहीं की......चंद वर्ष पूर्व ग्रामीण क्षेत्रों में साबुन, तेल, मोमबत्ती, मंजन जैसे उत्पाद बहुतायत में बनते थे और स्थानीय स्तर पर उसका बाज़ार भी पर्याप्त विकसित हुआ करता था......परन्तु विदेशी कंपनियों के आ जाने से इन छोटे उद्योगों को गहरा धक्का पहुंचा ..... विदेशी कंपनियां पूरे दम ख़म से आती हैं...... और जब आती है तो विज्ञापनों के सहारे बाज़ार में लुभावन मायाजाल उत्पन्न करती हैं..........वर्ना एक छोटा उदाहरण लें तो सभी को पता है कि कोई भी क्रीम शरीर पर घिस कर कोई गोरा नहीं होता.........परन्तु हल्दी और चन्दन जैसे उबटन लगाने से त्वचा में कोमलता और कांति अवश्य आती है............परन्तु यहाँ पर प्रतिस्पर्धा में छोटा व्यापारी/ वस्तु उत्पादक, विदेशी कंपनियों के सम्मुख कहीं नहीं ठहरता..........फलतः कुछ दिनों के पश्चात वह स्वयं किसी दुकान पर विदेशी उत्पादों का विक्रय करता हुआ दीखता है........तो दूसरी तरफ स्वदेशी तकनीकी, स्वदेशी जड़ी बूटी और बाबा दादी के नुस्खे....किसी विदेशी प्रयोगशाला में अध्ययन के पश्चात् पेटेंट हो जाते हैं..... ...

अतः यहाँ पर जरूरत थी कि कोई ऐसा होता जो आगे बढ़ कर आता और कहता कि नहीं तुम उत्पादन जारी रखो.....बाज़ार तुम्हें मैं उपलब्ध करवाऊंगा......अथवा ये कि चलो तुम्हारा लागत मूल्य कम करने के लिए मैं मदद करता हूँ......... ताकि तुम बाज़ार में टिककर खड़े रह सको......मूलतः यह काम सरकार को करना चाहिए था.........परन्तु नहीं कोई नहीं आया..... आज बाबा ने जब लघु और कुटीर उद्योगों को बाज़ार उपलब्ध कराने कि बात कि तो मुझे व्यक्तिगत रूप से काफी अच्छा लगा..... उन्हें महज साबुन तेल तक ही सीमित न रहकर आगे बढ़कर असंगठित मजदूर वर्ग के उत्थान के लिए कार्य करना चाहिए....... यदि उनकी मंशा साफ़ है और वह ऐसा करने में सफल हो सके तो निश्चित ही वह न केवल रिटेल बाज़ार में एक प्रभावशाली उपस्थिति दर्ज करायेंगे, वरन देश कि अर्थव्यवस्था में निचले स्तर के यथोचित योगदान को भी सुनिश्चित करेंगे.....इससे एक और जहाँ छोटे उद्योग धंधे पुनः पनप सकेंगे......तो दूसरी ओर रोज़गार के साधनों में आशातीत बढ़ोत्तरी होगी......

परन्तु विरोधों और विरोधियों का क्या.....कुछ लोग तो महज़ विरोध के नाम पर ही विरोध करते हैं..... उन्हें बाबा के हर रूप में छल नज़र आता है......राजनीति नज़र आती है..... मैंने पहले भी कहा था.......राजनीती कोई बुरी चीज़ नहीं बशर्ते उसे सही मंशा के साथ कि जाए...... परन्तु वाह रे देश के महान कालिदासों........आपको तो विरोध का एक बहाना चाहिए...... ...क्या कहने आपके.........परन्तु आपको भी मैं दोष क्यों दूँ ...... जब अपने देश की बासमती भी तभी अच्छी लगती है जब वह विदेशों से पोलिश होकर आती है..... तो देशी बाबा की स्वदेशी भला कहाँ भाएगी आपको .....आप अपना राग अलापना जारी रखें.....परन्तु चंद पलों के लिए ही सही .......सोचियेगा जरूर ........क्या इस बार विरोध करके आप वास्तव में राष्ट्रहित में ही सोच रहे हैं...... .... 



(मनोज)

Tuesday, 10 January 2012

समझा अपना... निकला सपना.


समझा अपना.
निकला सपना.
रे मूरख क्यूँ व्यर्थ बिलखना..


श्वांस हमारी संग तिहारी.
कैसे मोड़ पे आके हारी.
सोचा था है अपनी कुटिया....
यहीं पे रहना, यहीं पनपना..
पर रक्षक ने द्वार पे रोका.
बोला यहाँ नहिं माला जपना...
समझा अपना.
निकला सपना.
रे मूरख क्यूँ व्यर्थ बिलखना..

सोचा मिल बाटेंगे पीड़ा.
साथ समय के करेंगे क्रीडा..
उनकी खातिर खूब हँसेंगे..
उनकी खातिर ही है तड़पना..
सुन्दर बगिया का माली था,
बोला यहाँ नहिं मरना खपना..
समझा अपना 
निकला सपना.
रे मूरख क्यूँ व्यर्थ बिलखना...     

(मनोज)

Sunday, 1 January 2012

किसी भी कोने में भारत के.... हो न कोई बवाल....

शपथ ले सही तरीके से ही मनेगा अब ये साल...
किसी भी कोने में भारत के.
हो न कोई बवाल....

भूकंप से तबाही मची जापान में..
पड़ी सुनामी मार...
रेडियेशन का पड़ा तीव्र प्रहार .....
मिस्र, यमन में क्रांति मची..
और लादेन को दिया मार.....
गद्दाफी ने भी मरके छोड़ी सरकार ....
जब ईश्वर की सत्ता सर्वोच्च, क्यूँ उलटी सीधी चाल...
अब किसी भी कोने में भारत के.
हो न कोई बवाल....

चिकनीचमेली, जलेबीबाई  ..
कुछ भी करने को तैयार....
गन्दी भाषा का खूब किया प्रचार......
डेल्ही बेल्ही, डर्टी पिक्चर
को देख टपकती लार .....
यही अब नैतिकता का सार.......
पिक्चर वालो क्या यही उचित है, खुद से करो सवाल....
फिर किसी भी कोने में भारत के.
हो न कोई बवाल....




राजा, अमर और कलमाड़ी
ने स्वच्छ किया है तिहाड़...
मत करना अब अपराधी पर वार.....
सारी तिकड़म व्यर्थ हुई जब..
की राज्य सभा बेकार....
ममता का भी व्यर्थ गया हथियार....
राजनीति ने धर्मनीति पर उठा दिए क्यूँ सवाल....
अब किसी भी कोने में भारत के
हो न कोई बवाल....

जाये सुधर सब अब नर नारी
करें ना भ्रस्टाचार .....
क्यूँ पड़े जरुरत अन्ना को अनशन की यार..
लाकर बाहर से अपना काला धन सारा...
चल करें वैध व्यापार ...
फिर क्यूँ पहने कोई बाबा सलवार...
शपथ ले सही तरीके से ही मनेगा अब ये साल...
किसी भी कोने में भारत के.
हो न कोई बवाल....



 (मनोज) 



Thursday, 8 December 2011

चुप रहने में ही भलाई है....



वो कहें कुछ भी करें, तो व्यक्त अभिव्यक्ति हुई,
हम कहें जो सच, सशक्त अंकुश लगाना चाहिए....

मूढमति को मूढ़ कहना, है बड़ी ये ध्रस्टता,
क्या कहें उनको ये उनसे, पूछ आना चाहिए....

देखने को मूल्य-वृद्धि, अर्थ के मर्मज्ञ हैं,
तब तलक अब अपने मुंह, ताला लगाना चाहिए...

अब विदेशी ही करेंगे, पेट का भी फैसला,
जीना हो तो आपको, मल अपना खाना चाहिए...  

जनता की लूटी कमाई, रक्षकों ने शान से,
नादिरशाही भी हुई, लज्जित लजाना चाहिए....

वे तेरी अस्मत से पर्दा, खींचने को व्यग्र हैं,
कौरवों को मन मुताबिक, इक बहाना चाहिए...

रक्त है सस्ती हुई, अब जिंदगी के मोल से,
मौन रहना राष्ट्रभक्ति, है निभाना चाहिए....


मनोज


Sunday, 27 November 2011

सरकार का अनर्थशास्त्र

सरकार का अनर्थकारी अर्थशास्त्र जारी है ...... जारी है मंहगाई बढाने वाली सरकारी नीतियां, और जारी है सरकार का अहंकार....... वह अहंकार जिसके अधीन होकर सरकार को लोगों के कष्ट, उनके दुःख और उनकी पीडाएं न तो समझ आती हैं और न ही दिखाई देती हैं ...... देश में चौतरफा चीज़ों के दाम बढ़ रहे हैं........और यदि सरकार के जिम्मेदार लोगों से पूछो तो वो या तो ये कहते हैं की उनके पास जादुई छड़ी नहीं है ......अथवा ये की लोगो की आमदनी बढ़ रही है....... लिहाजा वे खर्च ज्यादा कर रहे हैं..... हंसी आती है आपको..... मत हंसिये क्योंकि सरकार को यही ज्ञात सच्चाई है......परन्तु सत्य क्या है ?? सत्य यह है की सरकार दिशाहीन हो चुकी है .......और उसकी नीतियाँ विफल........ मंहगाई को रोकने के उसके सभी प्रयास निरर्थक और निष्परिणाम रहे........ क्योंकि संभवतः उसे लगता ही नहीं की मूल्य वृद्धि है भी......और यदि है तो उसे रोका कैसे जाए.......आइये देखते हैं.......



१.  मूल्य वृद्धि को कम करने के नाम पर सरकार रिज़र्व बैंक के माध्यम से आये दिन ब्याज दरें बढ़ा रही है...... दरअसल सरकार की नीति है कि ब्याज दर बढ़ने से, ऋणों पर भी ब्याज दर बढ़ेगी, फलतः लोगों के ऋण की किश्त भी बढ़ जाएगी..... जैसा की मैंने पहले ही कहा की सरकार मानती है की लोगों के पास खर्च करने के लिए अधिक धन है और मंहगाई इसीलिए बढ़ रही है क्योंकि वे अधिक क्रय कर रहे हैं,  मतलब उनके द्वारा वस्तुओं कि मांग अधिक है........... ऋणों की किश्त बढ़ने से उसके पास खर्च करने के लिए धन में कमी आएगी और वह कम खरीदेगा, परिणाम मंहगाई कम होगी....... हंसियेगा मत..... 

२. सरकार ने बचत खातों में भी बैंकों को स्वायतत्ता दी है की वह ब्याज दर स्वतः तय कर सके...... परिणाम यह कि सरकार कि सोच के अनुसार बचत खातों पर भी ब्याज दर बढ़ेगी, और इसके आगे सरकार की सोच है कि लोगों के पास जो अधिक धन है उसे वह खर्च करने की बजाय अधिक ब्याज दर के लालच में बैंकों में रखना अधिक पसंद करेंगे रखेंगे और फिर वस्तुओ की मांग कम होगी......अर्थात मंहगाई घटेगी..... 

३. सरकार ने अभी हाल में खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश की अनुमति दे है .... उनका कहना है की उच्च कोटि के विविध सामान एक ही छत के नीचे कम मूल्य पर उपलब्ध होंगे ...... विदेशी कम्पनियाँ एक निश्चित प्रतिशत कच्चा माल सीधे किसानों से खरीदेंगी...... सरकार के अनुसार इससे किसानो को लाभ पहुंचेगा और उपभोक्ता को भी कम मूल्य पर सामान उपलब्ध हो सकेगा ....

४. सरकार ने पेट्रोल का मूल्य बाजार के अनुसार तय करने की छूट पेट्रोलियम कंपनियों को  दे दी है..... डीजल  और गैस के दाम भी इसी के अनुसार तय करने के छूट देने पर सरकार गंभीरता से विचार कर रही है.... सरकार का कहना है की पेट्रोलियम कंपनियां घाटे में चल रही हैं...... और अन्तराष्ट्रीय स्तर पर कच्चे पेट्रोलियम के मूल्य के अनुरूप, मूल्य वृद्धि उनकी मजबूरी....

मित्रों गंभीरता से विचार करे तो सरकार की ये नीतियां देश के लिए अल्पकालिक ही नहीं वरन दीर्घकालिक रूप से भी घातक हैं.....कैसे जरा सोचिये .....

१. जब सरकार ब्याज दर बढ़ाती है तो बैंकों के पास ऋण वितरण योग्य धन में कमी आती है, फलतः ऋणों पर ब्याज दर भी बढ़ जाती है......... छोटे और मध्यम व्यापारी, जोकि बैंकों से ऋण लेकर अपना व्ययसाय चलाते हैं, इस ब्याज वृद्धि को अधिक समय तक बर्दाश्त नहीं कर सकते ..... वस्तुओं के मूल्य वे तुलनात्मक रूप से बढ़ा नहीं सकते क्योंकि उन्हें बड़ी कंपनियों के साथ भी प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है...... इसका परिणाम यह होगा कि छोटे, मझौले और कुटीर उद्योग अधिक समय तक खड़े नहीं रह पाएंगे और धीरे धीरे समाप्त हो जायेंगे..... सत्य तो यह है कि सरकार को ब्याज दर बढाने की जगह उसे कम करने की आवश्यकता है ताकि लोगों को कम ब्याज दर पर ऋण मिल सके, छोटे छोटे उद्योग धंधे पनप सकें और रोजगार के अवसर विकसित हो सकें......  

२. सरकार की नीतियाँ, लोगों के जेब पर प्रहार कर रही हैं....... वे मांग को कम करना चाहते हैं, परन्तु आपूर्ति बढाने की दिशा में कोई भी कदम उठाने में विफल रहे है..... सरकार को ये समझना होगा की जब तक आपूर्ति नहीं बढ़ेगी, मंहगाई किसी भी दशा में कम हो ही नहीं सकती.......... सरकार के पास कोई स्पस्ट और घोषित खाद्य नीति नहीं है....... किसान ऋण जाल में फंसे हुए है और कई तो उसे ना चुका पाने के कारण आत्मघाती कदम तक उठा रहे हैं..... परन्तु सरकार निष्क्रिय है....... अभी तक सरकार किसानो की मदद के नाम पर समर्थन मूल्य बढ़ा दिया करती थी..... परन्तु खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश और सीधे किसानो से खरीद सम्बन्धी प्रस्ताव, सरकार द्वारा समर्थन मूल्य प्रणाली समाप्त करने की दिशा में ही उठाया गया सोचा समझा कदम है...... सरकार को धरा की उर्वरा शक्ति विकसित करने, उत्तम बीजों हेतु अनुसंधान करने तथा सिंचाई सुविधा हेतु नदियों को जोड़ने जैसी दीर्घकालिक योजनाओं को अपनाने की आवश्यकता है....

३. खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश की अनुमति से निश्चित रूप से एक छत के नीचे समस्त वस्तुए उपलब्ध हो सकेंगी, मूल्य भी अपेक्षाकृत कम होने की सम्भावना है..... परन्तु बदले में स्थानीय व्यवसाय को गहरा धक्का पहुंचेगा....... उनका व्यापार समाप्त होना तय है .......और वे छोटे व्यापारी जो अभी अपने व्यवसाय के मालिक हुआ करते हैं...... कुछ काल उपरांत इन विदेशी कंपनियों हेतु काम करते नजर आयेंगे....... ये खुदरा व्यावसायिक कंपनियां अंतरास्ट्रीय स्तर पर कार्य करती हैं, वे कच्चा माल वहां से उठाती हैं, जहा वो सस्ता हो और अपने कारखाने वहां लगाती हैं जहाँ उन्हें टैक्स इत्यादि में राहत हो अर्थात वो सुगम हो...... फलतः पुनः वही प्रणाली स्थापित हो जायेगी कि विदेशी कंपनियां कच्चा माल हिन्दुस्तान से लेंगी......उन्हें प्रोसेस बाहर करेंगी और फिर अपना उत्पाद ऊँचे दाम पर पुनः हमारे देश में बेचने का काम करेंगी...... क्या हम इसके लिए तैयार हैं...... शायद नहीं.....क्या यह गुलामी कि दिशा में उठाया गया कदम नहीं लगता ? .......शायद हाँ ..

४. सरकार पेट्रोलियम कंपनियों के घाटे के नाम पर डीजल और रसोई गैस के मूल्य को भी विनियंत्रित करना चाह रही है....... एक तो कोई भी पेट्रोलियम कंपनी घाटे में चल नहीं रही......सभी अच्छा खासा मुनाफा कमा रही हैं..... दूसरे, कहने की आवश्यकता नहीं की पेट्रोलियम पदार्थों के दाम बढ़ने से चहुँ ओर मंहगाई स्वतः ही बढती है........ सभी उत्पादों, वस्तुओं और कच्चे माल की ढुलाई लागत बढ़ जाती, यातायात मंहगा हो जाता है.......जो अंततोगत्वा मंहगाई बढाने का ही काम करता है.........सरकार को चाहिए की पेट्रोलियम पदार्थों के मूल्य को सरकारी नियंत्रण में रखे....... यदि सरकार सब्सिडी दे भी रही है तो यह कोई एहसान नहीं...... टैक्स द्वारा अर्जित धन से ही सब्सिडी दिया जा रहा है...... फिर इतनी हाय तोबा क्यों....... 

५. सरकार का ना तो भ्रस्टाचार पर नियंत्रण है और ना ही जमाखोरी और कालाबाजारी जैसे रोग पर...... भ्रस्टाचार एक कोढ़ कि तरह है, जो देश को किसी दीमक कि तरह चट कर जाने पर आमादा है ......क्योंकि टैक्स द्वारा अर्जित धन का पर्याप्त दुरूपयोग हो रहा है......वह धन जोकि देश के ढांचागत विकास, गरीबो के उत्त्थान, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे कार्यों और गरीबों को सब्सिडी देने में किया जा सकता था, वह विदेशी बैंकों कि शोभा बढ़ा रहा है..........अतः एक ओर जहाँ खासतौर से उच्च स्तर पर भ्रस्टाचार रोकने के लिए कठोर कदम उठाये जाने कि आवश्यकता है ........ तो दूसरी ओर उत्पादन बढाने हेतु विशेष प्रयास किये जाने की भी... क्योंकि यदि आपूर्ति पर्याप्त होगी तो जमाखोरी और कालाबाजारी जैसी बुराइयां अपने आप दूर हो जाएँगी.....और मंहगाई कम हो सकेगी.....  

परन्तु सरकार को उपर्युक्त बातों से कोई सरोकार नहीं....... उसे तो वही करना है जो उसका मन करेगा....... ३२ रूपये और २६ रूपये गरीबी का मापदंड रखने वाली सरकार अभी भी ग्लोबल हंगर इंडेक्स में ८१ देशों में ६७ वे नंबर पर है......... तो क्या हुआ अगर पाकिस्तान, नेपाल, सूडान और रवांडा जैसे देशों में खाद्य आपूर्ति अथवा यू कहें की भूख और भूखों की स्थिति हमारे देश से बेहतर  है.......परन्तु सरकार को चलाने वाले तथाकथित अर्थशास्त्री अपनी नीतियों की परख करते रहेंगे...... वे इतनी उंचाई पर पहुँच चुके हैं, जहाँ से ना तो जमीन नजर आती है और न ही जमीन पर खड़ा गरीब, फिर उसकी चिंता वे करेंगे, इसकी अपेक्षा ही मूढ़ता है....... परन्तु वे भूल चुके हैं........की व्यक्ति जितनी ऊंचाई पर होता है........गिरने पर उसे क्षति पहुँचने की सम्भावना उतनी ही अधिक होती है.......कुछ आवाजें तो सुनाई देनी शुरू हो गई हैं.......परन्तु ना जाने कितने अनुगूँज अभी भविष्य हेतु करवटे ले रहे हैं..........चेत जाइये ......समय थोड़ा ही बचा है....


मनोज     
                

Tuesday, 22 November 2011

डर लगता है.



जो नर खुद को कहते ईश्वर, उनसे मुझको डर लगता है !


धर्म आवरण ओढ़ के बैठे, ना जाने क्या क्या कर जाएँ ?
दुःख सागर में डूबी दुनिया, सुख खातिर सबको भरमायें !!
अंध आस की आँख पे पट्टी
मधुरिम उनका छल लगता है.
जो नर खुद को कहते हैं ईश्वर, उनसे मुझको डर लगता है...



उनके कितने ही अनुयायी, हाथ जोड़ के खड़े हैं रहते !!
ना जाने किस खोज में हैं सब, धारा एक में सभी तो बहते !!
वो शास्वत कहते  हैं खुद को,
हमें बेगाना घर लगता है :)
जो नर खुद को कहते हैं ईश्वर, उनसे मुझको डर लगता है....


मुझसे मेरे मित्र ने कहा, दुःख आएगा तब जानोगे !!
धरती के इन सब प्रभुओं को, उस दिन ही तुम मानोगे !!
मैंने कहा मुझे ये जीवन,
दुःख का ही तो सफ़र लगता है :)
जो नर खुद को कहते हैं ईश्वर, उनसे मुझको डर लगता है...


मनोज 

Sunday, 30 October 2011

सब बढ़िया है....


आधुनिकता के दौर में,
टूटा हर सुख सपना,
हुए स्वार्थी रिश्ते नाते,
मीत बचा न कोई अपना,
खींच खांच के चलती गाड़ी लढ़िया है...
सब बढ़िया है......

टूटी फूटी खटिया पर, 
बैठा अध्यापक,
जनगणना, मतगणना का
हर काम है व्यापक,
बच्चों हित ना बोर्ड चटाई खड़िया है... 
सब बढ़िया है...

भई दूर रोटी चटनी,
सत्तू पिआज मरचा चोखा,
निर्धन की टूटती साँसों से,
वे ढूँढते वोटों का मौका,
टूट रही सत्ता समाज की कड़ियाँ हैं...
सब बढ़िया है.....

देखी नार टपकती लार, 
ढूंढ रहे सज्जन ये प्यार,
घर में बीवी बच्चों को छोड़
है बाहर में मुंह रहे मार,
टूटे दांत, पोंपला चेहरा पेट हो गया हड़िया है .
सब बढ़िया है....






गाँव छोड़ छोड़ा सुकून,
सब भागम-भाग का रेला है,
उलझा मन ऊँचे भवन देख,
हर काम में यहाँ झमेला है,
मन को तो देती सुकून मेरे गाँव की टूटी माड़िया है..
सब बढ़िया है...




मनोज 

Wednesday, 12 October 2011

वाह री अभिव्यक्ति !!!

आज घर आया तो पता चला कि भाई प्रशांत भूषण पिट गए.....कारण जाना तो पता चला कि साहेब चाहते थे कि कश्मीर में जनमत संग्रह करवा लिया जाए....... और उसके जरिये कश्मीर के भविष्य का फैसला हो जाए....... वाह वाह क्या बात है........ लेकिन इसमें नई बात क्या है ??? संयुक्त रास्ट्र संघ ने तो १९४८ में हमारे तत्कालीन प्रधानमंत्री द्वारा मामला ले जाने पर यही प्रस्ताव पारित किया है........  लेकिन हमने नहीं माना........ तब भी ...... और उसके बाद आज तक ........फिर आज भला उस प्रसंग को पुनः कुरेदने क़ी आवश्यकता ??? ...... शायद नहीं थी..... 


परन्तु कोई बात नहीं......... प्रशांत भूषण ठहरे बड़े वकील हैं ...... प्रसिद्धी का नवीनतम   भूत उनके सर पर सवार है.......तभी तो इस बात का भी ख्याल नहीं रखा......कि देश क़ी संसद अनेकानेक बार ये प्रस्ताव संसद में पारित कर चुकी है कि ......कश्मीर हमारा अभिन्न अंग है......... और संसद तो देश का प्रतिनिधित्व करती है.......  और उसमे पारित प्रस्ताव स्वतः कानून है.......... फिर वकील साहेब ने कानून क़ी अवहेलना क्यों क़ी ??? ...... इसमें दो राय नहीं .......कि उन्हें भली भांति ज्ञात था कि उनकी बात का समर्थन तो कम से कम देश में नहीं होगा....... और विरोध होना स्वाभाविक है ......... और फिर इसके जरिये चर्चा........ और चर्चा है तो प्रसिद्धी में चार चाँद....... वाह भाई वाह ...... बस सुरक्षा व्यवस्था करना  भूल गए आप अपनी ........ खैर कोई बात नहीं....... आइन्दा ख्याल रखियेगा......... वैसे आप तो वकील हैं.........अपना मुकदमा अच्छे से रख कर उन युवकों को काफी समय के लिए अन्दर तो करवा ही दीजियेगा ...... बढ़िया है ....... 


अब आते है उनकी बात के प्रभाव पर ....... चलिए मान लिया कश्मीर में जनमत संग्रह करवा दिया जाए ...... सर्वविदित है, की उस दशा में इस पर दो ही फैसले आ सकते हैं...... लेकिन फिर उसके बाद तेलंगाना राज्य बनाने के लिए, गोरखालैंड बनाने के लिए, नक्सलवाद को मान्यता देने के लिए, रामजन्म भूमि पर मंदिर बनाने के लिए और  यही क्यों हर विवादित मामले को सुलझाने के लिए जनमत संग्रह क़ी मांग कैसे गलत होगी ? ..........यही क्यों इतिहास को पुनर्जीवित कीजिये....... हैदराबाद और जूनागढ़ भी भारत में स्वेच्छा से सम्मिलित नहीं हुए थे.......वहां के लोगों को न्याय दिलाने के लिए वहां भी करवा लीजिये जनमत संग्रह .......यही चाहते हैं ना आप......

परन्तु मित्रों बात इतनी सी नहीं है........... आज कुछ लोगों ने अभिव्यक्ति के नाम पर देश को गाली देने क़ी परिपाटी शुरू कर दी है....... वो कुछ भी करें........ उसका विरोध नहीं होना चाहिए ..........उसका विरोध करने वाले उनकी आजादी के दुश्मन हैं ...... अभिव्यक्ति का सम्मान न करने वाले लोग हैं .........उन्हें शांति पूर्ण तरीके से अपनी बात भी रखनी चाहिए थी ........ ऐसे बयान तुरंत आने लगेंगे....... 

लेकिन प्रश्न है ये अधिक आजाद लोग ऐसी बाते करते ही क्यों हैं जो दूसरो क़ी भावनाओं को ठेस पहुचाये ?........ उन्हें क्यों नहीं लगता क़ी देश को अखंड मानने वाले लोग, देश के बिखराव क़ी बात सुनके बिखर जायेंगे....... उन्हें गुस्सा आएगा और उससे भी अधिक उन्हें दुःख  होगा ...... ऐसे बहुत सारे लोग हैं  .... घर के भीतर, बाज़ार में, सड़क पर हर कहीं .........जिनके ह्रदय में असहनीय पीड़ा होती है ऐसी बातो को सुनने से.........परन्तु वो चाह के भी उसका विरोध नहीं कर सकते ........ वे विवश होते हैं ......... उतने ही जितने किसी चौराहे पर लगे अश्लील पोस्टर को बर्दाश्त लिए.........क्या उनकी मौन अभिव्यक्ति कोई  कभी नहीं सुनेगा........ लेकिन आखिर कब तक....... एक नग्न चित्र बनाने वाले को अपने देश क़ी मिटटी तक नसीब नहीं हुई........ लोगों को समझाना चाहिए कि वे ऐसा कुछ ना करे या कहें जो उनके लिए घातक साबित हो ........और देश के लिए लज्जाजनक .....

मैंने बचपन में एक कहानी पढ़ी थी..... बात सन ४७ कि थी, उसमे एक व्यक्ति अपने हाथ में डंडा लेकर चारो और लहरा रहा था..... जो आने जाने वाले लोगों को लग रही थी ........और वो इधर उधर भाग रहे थे........ एक व्यक्ति जो काफी देर से उस घटनाक्रम को देख रहा था उसके पास आया और उससे पूछा .....

"भाई साहेब आप इस तरह से डंडा क्यों घुमा रहे हैं देख नहीं रहे इससे लोग परेशान हो रहे है"....... 
"आपको पता नहीं कि देश आजाद हो गया है ..........और मैं भी......मैं तो मात्र अपनी ख़ुशी का इज़हार कर रहा हूँ." वह युवक चहकते हुए बोला.......
"सत्य है, देश आजाद है और आप भी......परन्तु आपकी आजादी वहीँ तक है जहाँ तक आपकी नाक........उसके आगे तो दूसरे कि आजादी शुरू हो जाती है." कहते हुए उस व्यक्ति ने उसके हाथ के डंडे को लेकर तोड़ दिया......

कथन का अर्थ सरल है ...........इस बात पर भी चिंतन होना चाहिए कि वकील साहेब ने अपनी आजादी का जश्न मनाते हुए कहीं दूसरे कि आजादी भंग तो नहीं की.........



मनोज