Friday, 4 January 2013

“एक खत जस्टिस वर्मा के नाम”

01.01.2013
परमआदरणीय जस्टिस वर्मा जी,

देश में स्त्रियों के प्रति बढ़ते आपराधिक मामलों पर आप द्वारा देशवासियों से राय मांगा जाना अत्यधिक ही सराहनीय कदम है, मैं भी अपनी ओर से इस दुरूह समस्या के कुछ पहलुओं और प्रस्तावित दड हेतु अपनी राय आपके समक्ष रखना चाहता हूं, आपसे अनुरोध हैं कि आप अपना बहुमूल्य समय निकालकर इस पत्र को पूरी तरह से अवश्य पढ़े, साथ ही आपसे यह भी अनुरोध है कि पूर्ण पत्र को पढ़े बिना कृपया आप कोई राय न बनाएं,

आज एक गूढ़ प्रश्‍न ने समाज को झकझोर के रखा हुआ है, प्रश्‍न है बलात्‍कार का, यह सच है कि किसी भी दशा में बलात्कार सभ्य समाज में स्वीकार्य नहीं हो सकता, परन्तु यह भी उतना ही सच है कि बलात्कार हमारे सामाजिक ताने बाने का ही एक पहलू बन गया है, यदि हम अपने शास्त्रों की भी बात करें, तो आठ प्रकार के प्रचलित विवाहों में “पैशाच विवाह” का भी जिक्र होता है जिसमें विवाह बलात्‍कार के उपरान्‍त होता था, यद्यपि इसे निन्दनीय माना गया था, परन्तु फिर भी विवाह के प्रकारों में से यह एक था, इसी प्रकार मान्यताओं के अनुसार इंद्र ने अहिल्या के साथ बलात्कार ही किया था (छलपूर्वक रमण को बलात्कार ही माना जाना चाहिए), परन्तु वह अभी भी देवराज के पद पर विद्यमान हैं, मध्यकाल में विजित प्रदेश में और यहां तक की हारे हुए राजा की परिजन महिलाओं के साथ भी दुर्व्यवहार और बलात्कार के जिक्र हैं, अतः इस विवेचन से यह तो स्पष्ट होता है कि सामान्य रूप से बलात्कार  “रेयरेस्ट आफ द रेयर” तो छोडि़ए, “रेयर” की श्रेणी में भी नहीं आता, क्योंकि यह हमारे सामाजिक ताने बाने को उलझाए हुए एक धागा है, जो कभी भी अनुपस्थित नहीं रहा, समाज में बलात्कार अचानक से ही आ गया हो, ऐसी कोई बात नहीं, हां इनकी संख्या अवश्य बढ़ गई है, और क्रूरता भी, जिस पर विचार किए जाने की एवं सुधार की दिशा में कदम उठाने की नितांत आवश्‍यक्‍ता है,

अतः सजा की बात किए जाने से पूर्व इस बात पर विचार किया जाना चाहिए, कि आखिर बलात्कार की घटनाओं ने समाज में किस प्रकार से इतनी पैठ बना ली है, जोकि अब नासूर बनती जा रही है, कौन है इसके लिए उत्तरदायी और आखिर कैसे समाज को इस प्रकार की घटनाओं से बचाया जा सकता है, मेरे अपने विचार से ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए समाज में और सामाजिक प्रतिष्‍ठानों मे कुछ सुधार किए जाने की नितांत आवश्यकता है, अतः मैं यहां प्रमुखतः तीन क्षेत्रों मे सुधार हेतु अपने सुझाव देना चाहता हूं,

1. सामाजिक सुधार – सच कहें तो बलात्‍कार की समस्‍या पुलिसिया अथवा न्‍यायिक समस्‍या न होकर एक सामाजिक समस्‍या है, प्रश्‍न उठता है कि आखिर क्‍या होती होगी किसी बलात्‍कारी की मानसिकता, आखिर वह किन परिस्थितयों में ऐसी घटनाओं को अंजाम देता होगा, किसने उकासाया होगा उसे और किसने उसे ऐसी शिक्षा प्रदान की होगी, आज इस बात की गहन पड़ताल किए जाने की आवश्‍यक्‍ता है, सत्‍य तो यह है कि कोई भी व्‍यक्ति न तो जन्‍मजात अपराधी होता है और न ही बलात्‍कारी, यह समाज और उसका परिवेश ही है, जो उसे उसकी दिशा प्रदान करता है, सामाजिक सुधार हेतु सलाह देना आसान है, परन्तु सामाजिक सुधार करना कोई सहज कार्य नहीं, सामाजिक सुधार के पहलू भी विभिन्‍न हैं, जिनमें से कई तो इस हद तक विकृत हो चुके हैं, कि उनमें सुधार की संभावना ही समाप्‍त हो चली है, फिर भी अपनी ओर से कुछ सुधारो हेतु मैं अपने सुझाव देना चाहूंगा –

क-   समाज की संरचना परिवार से होती है, हम सदैव ही यह दलील देते नहीं अघाते बल्कि युं कहें कि अपने आपको गौरवान्वित महसूस करते हैं कि लड़का और लड़की बराबर हैं, परन्‍तु सच क्‍या है, सच यह है कि लड़का और लड़की बराबर नहीं हैं, उनकी शारीरिक संरचना भिन्‍न है, उसकी क्रिया प्रणाली भिन्‍न है, क्‍या आपने पुरूष के साथ बलात्‍कार के मामले सुने हैं, नहीं न, यह अपराध स्त्रियों के प्रति ही होता है जो कि लैंगिक विभेद को स्‍पष्‍ट रूप से परिभाषित करता है, अतः परिवार का यह दायित्‍व है कि वह लड़का और लड़की दोनो को उनके लिंग के अनूरूप सामाजिक, व्‍यावहारिक एवं नैतिक शिक्षा प्रदान करे, जहां एक ओर लड़कियों को अपनी सुरक्षा हेतु आवश्‍यक तत्‍वों का बोध कराया जाना चाहिए वहीं लड़को को स्त्रियों और महिलाओं का आदर करना परिवार से ही सिखाया जाना आरम्भ कर दिया जाना चाहिए,

ख-   देश की शिक्षा व्‍यवस्‍था चरमरा गई है, वह भ्रष्‍टाचार (डोनेशन) से आरम्‍भ होती है, और उसी प्रकार के उत्‍पाद (भ्रष्‍टाचारी समाज) निर्मित करती है, शिक्षा के विषयों में से नैतिक शिक्षा उसी प्रकार से विलोपित हो चुकी है, जिस प्रकार से डायनासौर अर्थात उसका वापस आ पाना असंभव सा ही है, नैतिक शिक्षा के स्‍थान पर सेक्‍स इजुकेशन को जोड़ने की कवायद हम सुन रहे थे, परन्‍तु न तो उसके लिए संवेदनशील शिक्षक मिले और न ही इस विषय को ही गंभीरता से लिया गया, इसका  नतीजा यह हुआ कि अधकचरे ज्ञान ने युवाओं और खासतौर से युवतियों को गलत रास्‍ते पर ढ़केलने में कसर नहीं छोड़ी, अतः आवश्‍यक्‍ता है कि न केवल शिक्षण में नैतिक शिक्षा का समावेश पुनः किया जाए वरन सेक्‍स इजुकेशन के लिए भी मनोविज्ञान के शिक्षक नियुक्‍त किए जाए, जोकि बच्चों को उनकी आयु वर्ग के हिसाब से नियंत्रित शिक्षा प्रदान कर सकें,  

ग-    समाज की संरचना परिवेश से होती है, और आज हमारा परिवेश प्रदूषित हो चुका है, यह कहने में हमें कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए, पश्चिम का अनुगमन कर हम अपनी संस्‍कृति का विनाश करते जा रहे हैं, इस प्रदूषित परिवेश के प्रमुख कारणों में फिल्‍म, टी.वी. एवं विज्ञापन जगत है, जिस पर आज किसी का कोई भी नियंत्रण नहीं है,

यदि यह कहा जाए कि फिल्‍में अपराध की जननी हैं और बलात्‍कार के प्रमुख कारणों में से एक, तो अतिशियोक्ति न होगी, कुछ निर्देशकों का तो कार्य ही स्‍त्री भोग के विषयों पर फिल्‍में बनाना, जिन पर कोई नियंत्रण नहीं, वे स्‍त्री सशक्‍तीकरण, स्‍त्री की आजादी जैसी भारी भरकम बाते करते आपको कहीं भी नजर आ जाएंगे, जबकि सच्‍चाई यह है कि वे विकृत मानसिकता के व्‍यक्ति होते है और इतने घिनौने हो चुके होते हैं कि समाज मे रहने लायक  नहीं रह गए हैं, वे फिल्‍मों के संवाद उत्‍तेजक रखेंगे, गाली गलौच से सुसज्जित करेगे, गानों के बोल ऐसे रखेंगे, जो लड़कियों को छेड़ने के काम आ सके, परन्तु फिर भी अफसोस किसी को कुछ भी गलत नहीं लगता, किसी को इसके बच्चों के ऊपर पड़ने वाले प्रभाव पर चिंतन नहीं करना है, इससे भी दुःखद पहलू यह कि देश के म‍हान कर्णधार उन्हीं में से कुछ को कला फिल्‍मों का तमगा देकर राष्‍ट्रीय पुरस्‍कार भी यदा कदा प्रदान करते नजर आते रहते हैं,

विज्ञापन की बात करें, तो आप ही कहिए स्‍त्री को विपणन की वस्‍तु किसने बनाया, जरा गौर से चारो ओर दृष्टि दौड़ाइये, क्‍या कोई भी वस्‍तु बिना स्‍त्री की देह दिखाए बिक पा रही है, जी नहीं एक भी नहीं, परन्‍तु यह भी तो सोचिए कि आखिर क्‍यों नहीं बिक रही, आखिर क्यों उत्पादक स्त्री देह के घिनौने प्रदर्शन के माध्यम से अपना व्यापार विकसित करना चाहते है, क्‍या ऐसे किसी भी विज्ञापन पर कभी कोई रोक लगी, नहीं, शायद लगेगी भी नहीं और इनकी सीमाएं बढ़ती ही जाएंगी,

और इसके बाद न्‍यूज चैनल, कुछ चैनलों को अगर नानसेंस चैनल कहा जाए तो किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए, इन्‍हें कुछ भी दिखाने में शर्म नहीं आती, कई बार इन न्यूज चैनलों को हम सभी अपने परिवार के साथ देखने में शर्म का अनुभव करते हैं,

अतः आवश्‍यक है कि इन तीनों विधाओं पर सशक्‍त सेंसर लगाया जाए, जिसका उल्लंघन करने पर ऐसे व्यक्तियों पर जीवन पर्यन्‍त उस कार्य को करने पर रोक लगाई जानी चाहिए,

घ-    ब्‍वाय फ्रेंड गर्ल फ्रेंड कल्‍चर बलात्‍कार की बढ़ती घटनाओं की एक प्रमुख वजह है, विवाहेत्‍तर सम्‍बन्‍ध बनाने की खुलेआम आजादी ने समाज में विष घोलने का कार्य किया है, अवैध अल्‍पविकसित जोड़े, स्‍वेच्‍छाचारिता का उन्‍मुक्‍त प्रदर्शन करते हैं, फलतः ये न केवल अपना जीवन खराब करने का कार्य करते हैं बल्कि अन्‍य लड़कों और लड़़कियों को भी इस ओर प्रेरित करने का कार्य करते हैं, कहने की आवश्‍यक्‍ता नहीं कि इस प्रकार के अधिकांश सम्‍बंध या तो शारीरिक सम्‍बंधों पर समाप्‍त होते है अथवा उसके भी वीभत्‍सतम् रूप बलात्‍कार को जन्‍म देने का कार्य करते हैं,   

 2.  पुलिस सुधार – किसी भी मामलें में पुलिस को सहजता से दोषी करार देना अत्‍यधिक सरल है, परन्‍तु यदि हम धरातल की स्थिति देखें तो उनकी दशा भी अ‍त्‍यधिक खराब है, हम सरलता से कह देते हैं कि पुलिस ने एफ आई आर नहीं दर्ज की, अथवा दर्ज करने में आनाकानी की, परन्‍तु सरकार को यह भी जानना चाहिए कि आखिर एफ आई आर दर्ज होती क्‍यों नहीं है, कारण यह है कि एफ आई आर दर्ज करने के पश्‍चात मामले की छानबीन करनी पड़ती है और मामले को देर सबेर किसी निष्‍कर्ष तक पहुंचाने की आवश्‍यक्‍ता भी होती है, पुलिस तंत्र में भी स्‍टाफ की अत्‍यधिक कमी है, अतः पहले से कार्य के बोझ् तले दबा पुलिस का अधिकारी एक और एफ आई आर दर्ज कर अपना कार्य नहीं बढ़ाना चाहते, दूसरे यह कि किसी भी अधिकारी की योग्यता का आंकलन इस बात पर होता है कि उसके इलाके में कितने कम अपराध हुए, फलतः वह एक और एफ आई आर दर्ज कर अपने इलाके में अपराध की संख्या अधिक नहीं दर्शाना चाहता, इसके अतिरिक्त वेतन की स्थिति भी दयनीय तक है, लिहाजा वह रिश्‍वतखोरी हेतु विवश है, जोकि उसकी स्वयं की नैतिकता का मूल्य आंकती नजर आती है, अतः पुलिस तंत्र में भी कुछ सुधार करने की आवश्‍यक्‍ता है, खास तौर से बलात्कार की घटनाओं को दृष्टिगत रखते हुए, इस दिशा में मेरे सुझाव निम्‍न प्रकार से हैं,

क-     पुलिसकर्मियों की संख्‍या की समीक्षा की जाए, प्रत्‍येक थाने में कम से कम दो से तीन महिलाकर्मियों की नियुक्ति को अनिवार्य कर दिया जाए, किसी भी महिला की शिकायत महिलाकर्मी द्वारा ही दर्ज की जाए, तथा मामले की जांच भी महिला अधिकारी ही करे,

ख-     आजकल इंटरनेट का जमाना है, अतः इंटरनेट पर की गई शिकायत को मान्‍यता प्रदान की जाए और उसे एफ आई आर समझा जाए, ऐसी व्‍यवस्‍था की जाए,

ग-      पुलिसकर्मियों के वेतनमान की समीक्षा की जाए, तथा आवश्‍यक्‍तानुसार वेतन का पुर्ननिर्धारण किया जाए,

घ-      किसी थाना क्षेत्र में घटनाओं की संख्‍या के आधार पर पुलिसकर्मियों की योग्‍यता (सी आर) का निर्धारण न किया जाए वरन इस आधार पर योग्‍यता का आंकलन किया जाए, कि उसने आपराधिक मामलों का निपटान कितने कम समय में किया है,

3.  न्‍यायिक सुधार – आज देश में न्‍याय तंत्र अजीब सी स्थिति में है, किसी भी व्‍यक्ति को न्‍याय के लिए इतने धक्‍के खाने पड़ते हैं कि वह अकल्‍पनीय है, यदि मामला मीडिया में न उछले तो रसूखदार अपराधी सरलता से जमानत पा, मुकदमें को जीवन भर लटका कर रखते हैं, किसी व्‍यक्ति पर सौ मामले भी दर्ज हो सकते हैं, फिर भी वह आपको बाहर घूमता मिल जाएगा, क्‍या यही न्‍याय तंत्र है, परन्‍तु चूंकि यहां प्रश्‍न बलात्‍कार के मामलों को लेकर है, अतः मैं अपना आज का दृष्टिकोण वहीं तक सीमित रखना चाहूंगा, बलात्‍कार के मामलों को लेकर न्‍यायिक तंत्र में सुधार हेतु मेरे सुझाव निम्‍न प्रकार से हैं –

क-     पीडि़ता का प्रथम बयान एफ आई दर्ज करते समय महिला अधिकारी द्वारा लिया जाए, तत्‍पश्‍चात 24 घंटे के भीतर पीडि़ता की डाक्‍टरी जांच तथा महिला मजिस्‍ट्रेट के सामने दोबारा बयान लिया जाना चाहिए, इस बयान को अंतिम माना जाना चाहिए, इसका कारण यह है कि बाद में दबाव के कारण अक्‍सर बयान बदले जाते हैं, यदि बाद में पीडि़ता अपना बयान बदलती है, तो इस दशा में उसके ऊपर भी पर्याप्‍त दंड का प्रावधान भी होना चाहिए,  

ख-     बलात्‍कार जैसे जघन्‍य मामलों हेतु विशेष फास्‍ट ट्रैक कोर्ट का गठन होना चाहिए, यदि आरोपियों को पकड़ लिया गया हो तो नियमित सुनवाई कर 30 दिनों के भीतर सजा सुनाए जाने की बाध्‍यता निर्धारित होनी चाहिए,

ग-      बलात्‍कार के मामलों मे फास्‍ट ट्रैक के फैसले को सिर्फ सुप्रीम कोर्ट में ही अपील की अनुमति होनी चाहिए, और वहां भी सिर्फ महिला जज द्वारा ऐसे मामले को सुना जाना चाहिए,

घ-      विवाह की आयु के बारे में पुनर्विचार करने की आवश्‍यक्‍ता है, स्‍त्री और पुरूष के विवाह करने की आयु समान होनी चाहिए, और उसे घटाने में आपत्ति नहीं होनी चाहिए, 18 वर्ष की आयु में पुरूष वयस्‍क हो जाएगा, वोट डाल सकेगा, एडल्‍ट फिल्‍में देख सकेगा, परन्‍तु विवाह नहीं कर सकेगा, यह कौन सा तर्क हुआ,

मुझे ज्ञात हैं कि मेरे कुछ सुझाव आपको दकियानुसी और पुरातनपंथी लग सकते हैं, परन्‍तु मेरा अनुरोध है कि उनपर गहराई से विचार किया जाना चाहिए, ताकि उचित निर्णय पर पहुंचा जा सके,

अब आइये इस बात पर विचार करते हैं कि बलात्कारी को किस प्रकार के दंड का प्रावधान होना चाहिए, मेरे विचार सभी प्रकार के बलात्कारों को एक श्रेणी में नहीं रखा जा सकता, अतः दंड का प्रावधान करते समय, बलात्‍कार की घटनाओं को विभिन्न श्रेणियों में विभाजित करना पड़ेगा, ताकि सही न्‍याय हो सके,  

बलात्कार के प्रकार
सजा का प्रावधान करते समय, बलात्कार को निम्नलिखित समूहों में विभाजित किया जाना चाहिए,
1-  छल द्वारा
2-  बल द्वारा बिना हानि पहुंचाए
3-  बलात्कार एवं हत्या
4-  बलात्कार एवं क्रूरता

1. छल द्वारा बलात्कार - मुझे ऐसा प्रतीत होता है, कि छल द्वारा किए गए रमण में पुरूष और स्त्री दोनों ने आनन्द का उपभोग किया होता है, अतः इस प्रकार के मामलों में साधारण सजा का ही प्रावधान होना चाहिए, हालांकि छल के मामलों में स्त्री को कितना मानसिक आघात अवश्य पहुंचता है, इस बात का भी ध्यान रखा जाना चाहिए, और उसी को दृष्टिगत रखते हुए दड का निर्धारण भी किया जाना चाहिए, परन्तु फिर भी मेरे विचार से ऐसी दशाओं में अधिकतम 7 वर्षों का कारावास उपयुक्त दंड होगा,

2. बल द्वारा बिना शारीरिक क्षति पहुंचाए - यदि बलात्कार को पीडि़ता को बिना हानि पहुंचाए अंजाम दिया जाता है, तो इसका अर्थ यह हुआ कि स्त्री ने प्रतिरोध तो किया परन्तु आंशिक, डरा धमका कर, चाकू के नोक पर, अपहरण के बाद बलात्कार इस श्रेणी में डाले जा सकते हैं, ऐसी दशाओं में स्त्री को बेशक शारीरिक कष्‍ट अधिक न हो परन्‍तु उसे अत्यधिक मानसिक पीड़ा होती है, घटना उसे जीवन भर स्वयं की नजरों में गिरा देती है, और वह चाहकर भी उस घटना को जीवन पर्यंत भूल नहीं पाती, ऐसी दशा में बलात्‍कारी को ठीक उसी प्रकार की सजा का प्रावधान होना चाहिए, जिससे कि वह स्‍त्री की भांति जीवन पर्यंत उस घटना का याद कर सके और अपने अपराधों हेतु पछता सके, अतः ऐसे कृत्‍य हेतु अधिकतम आजीवन कारावास के दंड का प्रावधान होना चाहिए,

3. बलात्कार एवं हत्या - बलात्‍कार एवं हत्‍या के मामलों में वर्तमान कानून पर्याप्‍त है, जिसमें गुण दोष के आधार पर रेयरेस्‍ट आफ द रेयर का संज्ञान लेते हुए अदालन धारा 302 के अभियोग के तहत अधिकतम मृत्‍यु दंड प्रदान कर सकती है,

4. बलात्कार एवं क्रूरता - बलात्‍कार एवं क्रूरता जघन्‍यतम अपराध की श्रेणी में रखा जाना चाहिए, इसे हत्‍या से अधिक बड़ा आपराधिक मामला माना जाना चाहिए, कारण यह कि ऐसी परिस्थिति में पीडिता जीवित तो रहती है, परन्‍तु उसकी दशा मृतक के समान होती है, हमारे सामने अरूणा का उदाहरण है, जिसमें पीडि़ता अपनी मृत्‍यु मांगने हेतु विवश है, जबकि अपराधी सात साल की सजा काटकर पुनः अपना जीवन सुचारू रूप से चला रहा है, अतः क्रूरता/हिंसा का परिमाण देखते हुए अपराधी को अधिकतम मृत्‍यु दंड प्रदान किया जाना चाहिए, यहां मैं यह भी कहना चाहूंगा कि बच्‍चों के साथ हुए बलात्‍कार को, चाहे उसमें पीडि़त को शारीरिक रूप से कितनी भी कम हानि हुई हो, इसी श्रेणी में रखा जाना चाहिए, क्‍योंकि बच्‍चे के मन मस्तिष्‍क पर बलात्‍कार का जो प्रभाव रहता है, वह जीवन पर्यंत उसे कष्‍ट देता रहता है, यहां मैं यह भी कहना चाहूंगा कि बलात्कार एवं हिंसा जैसे मामलों में न्यूनतम सजा का भी प्रावधान होना चाहिए, तथा मेरे विचार से अपराध की न्यूतम सजा उसे शारीरिक रूप से नपुंसक बना दिये जाने का होना चाहिए, इसका कारण यह कि अपराधी जीवन पर्यंत उस कष्ट का अनुभव कर सके, जो कि उसने पीडि़ता को दिया है, साथ ही इस प्रकार का दड समाज में एक भय भी व्याप्त करेगा, जोकि अपराधियों को अपराध की दिशा में जाने से रोकने का कार्य करेगी,  

उपरोक्त दंड के प्रावधानों के साथ साथ मेरा एक अन्य सुझाव भी है, बलात्कार एक ऐसा कृत्य नहीं जिसे सिर्फ आपराधिक मानकर दंड दिया जा सके, बल्कि यह एक सामाजिक अपराध है जिसका कुछ दंड सामाजिक रूप से भी दिया जाना चाहिए, अतः मेरा सुझाव है कि बलात्कार के मामलों में जहां एक ओर पीडि़ता का नाम गुप्त रखना चाहिए क्योंकि इससे न केवल पीडि़ता के प्रति बल्कि उसके परिवार के प्रति भी समाज का दृष्टिकोण असामान्य हो जाता है, पीडि़ता और उसके परिवार को जगहंसाई एवं सामाजिक बहिष्कार जैसी परिस्थिति का सामना करना पड़ सकता है, तो वहीं दूसरी ओर अपराधी के नाम, उसकी पहचान और उसके फोटो को प्रत्येक दशा में सार्वजनिक किया जाना चाहिए क्योंकि वह उन सभी सामाजिक दंडों का पात्र होता है, जिससे हम पीडि़ता को बचाना चाहते है, यदि उसका सामाजिक बहिष्कार होता है तो हो, यदि उसके परिवार की साख को धक्का पहुंचता है तो पहुंचे क्योंकि उसके अपराध में उसके परिवार के दोष की भी अनदेखी नहीं की जा सकती, जिन्होंने उसे दोषयुक्त परवरिश देने के कार्य किया है, अतः उसके अपराध के लिए उन्हें भी यदि कोई सामाजिक दंड मिलता है, तो उसे उपयुक्त ही माना जाना चाहिए,

मुझे पूर्ण विश्‍वास  है कि आप मेरे पत्र का संज्ञान लेंगे तथा इस विषय पर रिपोर्ट बनाते समय मेरे द्वारा उठाए गए विषयों को गुण दोष के आधार पर शामिल करेगे,

भवदीय,


मनोज कुमार श्रीवास्तव

Tuesday, 25 December 2012

हत्‍यारी है यह भीड़


अचानक से सारा देश संवेदनशील हो गया, कुशल अभिनेत्रियों के गले संसद में भी अवरूद्ध हुए, समाजसेवी महिलासंगठन अचानक से सक्रिय नजर आने लगे, टी.वी.मीडिया चैनलों को बहस का एक मुद्दा मिल गया, फेसबुक और ब्‍लाग जगत जागरूक हो उठा, फिल्‍मों के जरिए अश्‍लीलता परोसने वाले हमारे फिल्‍मकार संजीदा हो गए, इंडिया गेट के मजमें में आम आदमी (राजनीतिक पार्टी) वालों ने और बाबा जी ने भी शिरकत कर समझाने की कोशिश की कि वह आम है, कहने का मतलब यह कि सभी में होड़ लगी हुई है, यह दर्शाने की कि वही सबसे ज्‍यादा जागरूक, महिला हितैषी और भावनाएं  रखता है, 

अचानक से ही इंडिया गेट और जंतर मंतर न्‍याय के मंदिर नजर आने लगे, युवा वर्ग अपने हाथों मे तख्तियां लेकर समाज को संवारने की मांग करता दिखा, लगातार "WE WANT JUSTICE" के अंग्रेजी नारों के माध्‍यम से वह तालिबानी शासन के 17 वीं सदी की न्‍याय की मांग कर रहे थे, और अफसोस कि उनकी इस बर्बर मांग के समर्थन में सम्‍पूर्ण मीडिया जगत एक हो उनका साथ दे रहा था,

अब आगे बढ़ते हैं, जब इस भीड़ ने इंडिया गेट और जंतर मंतर पर उत्‍पात मचाना शुरू किया तो पुलिस को कार्यवाही करनी पड़ी (और क्‍या करती सरकार, इन्‍हें अराजकता फैलाने के लिए खुला छोड़ देती), और इन्‍होंने क्‍या किया, एक सिपाही की पीट पीट कर निर्मम हत्‍या कर दी, आज ये  मोमबत्‍ती ब्रिगेड वाले उस सिपाही के घर नहीं जाएंगे, उसके लिए आंसू नहीं बहायेंगे, यह मीडिया उस सिपाही के लिए चीत्‍कार नहीं करेगी जो अपने कर्तव्‍य का निर्वहन करते हुए वीरगति को प्राप्‍त हुआ, ठीक  उसकी प्रकार जैसे यह कथित युवा तब जाग्रत नहीं होता जब नक्‍सली हमारे सैकड़ो सैनिकों की हत्‍या निर्ममतापूर्वक करते हैं, मैं किन्‍हीं दो घटनाओं की तुलना नहीं कर रहा वरन यह बताने का प्रयास कर रहा हूं कि कैसा दोमुंहा समाज है यह, आज सुबह का समाचार पत्र पढ़ा, दिल्‍ली में ही बलात्‍कार के तीन मामले दिखे, एक सामूहिक बलात्‍कार और हत्‍या का, एक बच्‍ची के साथ और एक अन्‍य, मुझे समझ नहीं आया कि ये मामले टी.वी.पर किसी ने क्‍यूं नहीं उठाए, सोशल मीडिया ने इनका संज्ञान क्‍यों नहीं लिया, मोमबत्‍ती ब्रिगेड आखिर इन मामलों के लिए कहां है,

पीडि़ता के साथ पूर्ण सहानुभूति व्‍यक्‍त करते हुए मैं कहना चाहता हूं मित्रों कि आखिर क्‍या करती सरकार, भई एक घटना घटित हुई, बिल्‍कुल शर्मनाक है, किसी भी सभ्‍य समाज के मुख पर काला धब्‍बा है, परन्‍तु फिर भी आरोपी गिरफतार कर लिए गए, पुलिसिया और न्‍यायिक कार्यवाही हो रही है, पीडि़ता को बेहतरीन इलाज भी चल रहा है, और क्‍या करेगी सरकार, क्‍या चाहते हैं ये प्रदर्शनकारी यह कि बिना किसी गवाह, सबूत, सुनवाई के वे उन सभी आरोपियों को लैंप पोस्‍ट से लटका कर फांसी दे दी जाए, मित्रों, सरकार को जी भर कर कोसना तो मानो फैशन ही बनता जा रहा है, सो इस फैशन का प्रदर्शन भी खूब हुआ, परन्‍तु यदि यह विरोध वास्‍तव में सार्थकता लिए होता, तो क्‍या यह अच्‍छा नहीं होता कि ये कथित आंदोलनकारी रास्‍तों पर गुजरने वाले उन सभी वाहनों जिनके शीशों पर काली फिल्‍म चढ़ी हो या परदे लगे हो, को नोंच कर हटाने का काम करते बावजूद इसके कि इंडिया गेट और जंतर मंतर पर हाय हाय करने के, 

हां परन्‍तु इतना अवश्‍य है देश की कच्‍छप से भी मंद गति न्‍यायिक व्‍यवस्‍था में सुधार की निश्चित रूप से आवश्‍यक्‍ता है, न्‍याय में देरी, न्‍याय देने की मनाहीं के समान है, सिर्फ ऐसे मामलों के लिए ही क्‍यों, सभी मामलों के निपटान के लिए एक समय सीमा तभी तय हो जानी चाहिए, जब ये मामने प्रथम सुनवाई के लिए अदालत में  पेश हों, न्‍याय सिर्फ होना ही नहीं चाहिए वरन न्‍याय होते हुए दिखना भी चाहिए, इस तरह के मामलों के लिए आज को सामाजिक ताना बाना भी काफी हद तक जिम्‍मेदार है, जिसकी पूर्ण पड़ताल होनी चाहिए और शिक्षा व्‍यवस्‍था में सुधार कर आधारभूत ढांचे को व्‍यवस्थित भी किया जाना चाहिए, यह ऐसा कुछ नहीं जिसे रातों रात ठीक किया जा सके,    

परन्‍तु फिर भी अंत में आज के इस वातावरण को देखकर यही कहूंगा आज का समाज एक एक भीड़ तंत्र बनकर रह गया है और हम इस भीड़ के साथ चलना चाहते हैं, यदि ऐसा नहीं तो हमारी संवेदनाएं सेलेक्‍टिव न होकर समाज के समग्र सुधार हेतु गुंजायमान होती, भीड़ का कोई विवेक नहीं होता, यह किसी भी हद तक जा सकती है और गई भी, आज तो इस भीड़ ने एक हत्‍या की है, एक सिपाही की हत्‍या, हत्‍यारी है यह भीड़ जिसका समर्थन किसी भी सभ्‍य समाज में नहीं किया जा सकता,


मनोज   

Thursday, 13 December 2012

......और अगर मोदी हार गए तो ?


मित्रों, देश में आज एक अजब ही माहौल बना हुआ है, खासतौर से गुजरात में, जहां पर फिलहाल चुनाव जारी हैं, सारा देश और सारा मीडिया इस प्रकार से दर्शा रहा है मानों नरेंद्र भाई मोदी पुनः सत्ता में आ ही गए हों, परन्तु मुझे एक आशंका होती है, और वह यह ​कि ​कुछ इसी तरह का माहौल चंद वर्षों पूर्व 2004 में भी बना था जब चारो तरफ एक खुशनुमा माहौल बनने की बात की जा रही थी और जिसका अंग्रेजी अर्थ "फील गुड" बताया जा रहा था, उस वक्त भी कांग्रेस के भीतर निराशा व्याप्त थी, किसी कांग्रेसी नेता के शरीर से ऊर्जा प्रस्फुटित नहीं हो रही थी, परन्तु जब परिणाम घोषित हुए तो सारी खुशनुमा हवा गायब हो गई, कांग्रेस के लुंज पुंज पड़ चुके चेहरे भी कांतिमय हो गए जब​कि भाजपा का आभामंडल अचानक ही शनि देव की वक्रदृ​ष्टि पड़ने के कारण निस्तेज नज़र आने लगा, मित्रों, जितनी सत्य भाजपा की तब की हार है, उतनी ही सही यह बात भी ही है ​कि उस काल में भी भाजपा ने अत्यधिक जनकल्याणकारी कार्य किए थे, प्रजा खुश थी, देश परमाणु सम्पन्न बन चुका था, सामान्य प्रशासन व्यवस्था भी कमोबेश चुस्त दुरूस्त ही थी,  परन्तु फिर भी य​दि भाजपा की हार हुई ​थी तो उसके कुछ कारण तो अवश्य ही रहे होंगे, क्या आपको ऐसा ही कुछ फील गुड गुजरात में आज नहीं दिख रहा, माफ़ कीजिये परन्तु यदि ऐसा ही परिणाम आज यदि गुजरात में भी दृष्टिगोचर हो तो, तो क्या होगा ?

मित्रों यह सच ​कि एंटी इंकम्बेंसी एक फैक्टर सदैव ही होता है, जो आमतौर पर चुनावों को प्रभावित करता है, प्रजा कितनी भी खुशहाल क्यूं न हो, उसकी अधिक की चाह सदैव ही बनी रहती है, वह सदैव ही किसी बदलाव को आजमा कर देखना चाहता है, इस आस मे ​कि शायद बदलाव एक नई हवा, नई उर्जा लेकर आये जो की उसके घर आंगन में नई तरह की खुशबू ​बिखेर सके, और यही वह कारण है जो​कि एंटी इंकम्बेंसी कहा जाता है और वही नरेंद्र भाई की राह में रोड़े अटका सकता है ।

अच्छा सोचिए, पल भर के ही लिए, अरे बाबा अब सोच भी लीजिए, मानो मोदी गुजरात चुनाव हार जाते हैं, फिर, फिर क्या होगा, दिमाग शून्य हो रहा है , जी हां ऐसा ही कुछ शून्य भाजपा के भीतर भी उभर कर आएगा, पूरी भाजपा में ही उथल पुथल मच जाएगी, विपक्षी दल ताने कसेंगे, प्रधानमंत्री पद की मोदी की दावेदारी ठंडे बस्ते में चली जाएगी, शायद सुषमा नई प्राइम-मिनिस्टर-इन-वेटिंग (!) होंगी, कांग्रेस की नई गुजरात सरकार अवश्य ही उस जिन्न को बोतल से निकालने का पूरा प्रयास करेगी, ​जिसने आज तक मोदी का पीछा नहीं छोड़ा है, जी हां दुरूस्त समझे आप मैं गोधरा का ही जिक्र कर रहा हूं, फिर मोदी सीबीआई दफतर के चक्कर काटते  नजर आएंगे, तो क्या मोदी का हाल बाबा रामदेव सरीखा हो जाएगा, पता नहीं बाबा कौन इतनी माथापच्ची करे, सोच सोच के ही पसीने आते हैं, 

अरे गुस्सा मत हो भाई, मैं तो महज एक आशंका व्यक्त कर रहा हूं, ईश्वर करेकि मोदी जीत जाएं और पुनः गुजरात की सत्ता हासिल करें, प्रधानमंत्री पद की दावेदारी पेश करें, उन्होंने गुजरात के विकास के अथक प्रयास किये हैं, विजय श्री पर उनका और सिर्फ उनका हक़ बनता है, परन्तु हार जीत लोकतंत्र केअभिन्न हिस्से हैं, चुनाव से पूर्व ही इतना हाइप उचित नहींकि परिणाम विपरीत होने पर पैरों के नीचे की जमीन खिसक जाए और सदमें से उबरने में सदियां छोटी लगने लगें,

मनोज

Friday, 7 December 2012

एफ डी आई लागू करने में बुराई नहीं


   मित्रों मेरा स्‍पष्‍ट मानना रहा है कि खुदरा व्‍यापार में प्रत्‍यक्ष विदेशी निवेश राष्‍ट्र के लिए विनाशकारी है, मेरी ऐसी धारणा के अनेकानेक कारण रहे हैं, जिनमें से कुछ प्रमुख निम्‍न प्रकार से हैं, 

 1. मेरी सबसे बड़ी आशंका यह है कि बड़े विदेशी व्‍यापारी आकर हमारी अर्थव्‍यवस्‍था को तहस नहस कर सकते हैं, इसका कारण यह कि 51 फीसदी विदेशी निवेश के कारण आधिपत्‍य विदेशी कम्‍पनियों का ही रहेगा, जाहिर है विदेशी कम्‍पनियां यहां जनकल्‍याण हेतु नहीं वरन मुनाफाखोरी के लिए ही आ रही हैं, वे अपनी हरकतों से बाज नहीं आने वाली, देश की ये नई दुकाने देश को विदेशी सामान से शीघ्र ही भर देंगी, जिससे उपभोक्‍ता आंशिक रूप से अवश्‍य लाभान्वित हो सकता है, परन्‍तु देश के लघु और कुटीर उद्योग का वही हाल होना तय है जोकि देश में खिलौना उद्योग का हुआ है, आप भी स्‍वीकार करेंगे कि आज बाजार में देशी खिलौने ढूंढे नहीं मिलते,

 2.  सरकार का कहना है कि व्यापार में बिचौलिए समाप्‍त हो जाएंगे और इससे जहां एक तरफ किसान को उसकी उपज का सही मूल्‍य मिलेगा वहीं उपभोक्‍ता को भी वह सामान सस्‍ते मूल्‍य पर उपलब्‍ध हो सकेगा, जी हां मुझे भी लगता है कि यह बात सत्‍य है परन्‍तु आंशिक, आइये इसे एक उदाहरण से समझते हैं, 
   मान लीजिए आज कोई किसान किसी वस्‍तु को 100 रूपये में बेचता है और उपभोक्‍ता को वही सामान बाज़ार में 140 रूपये में मिलता है, क्‍योंकि बीच में थोकविक्रेता, फुटकर विक्रता, सेल्‍स एजेंट इत्‍यादि के मार्जिन और ट्रांसपोर्टेशन इत्‍यादि के खर्चे हो जाते हैं, अब विदेशी व्‍यापारी के आने से क्‍या होगा? आपको क्‍या लगता है कि किसान को अब 138 रूपये मिलने लगेंगे या उपभोक्‍ता को वह सामान 105 का मिलने लगेगा? जी नहीं बिल्‍कुल नहीं ! ऐसा कुछ नहीं होने जा रहा, विदेशी व्‍यापारी किसान से वही सामान 102-105 रूपये का खरीदेगा और उपभोक्‍ता को 135-138 में विक्रय करेगा, आप कहेंगे अच्‍छा ही तो है, दोनों को लाभ हुआ ! परन्‍तु मित्रों सोचने की बात यह है कि जिस 40 रूपये के मार्जिन पर आज पांच सात परिवार पलते थे, वे बेरोजगार हो गए, ध्यान से देखिये, विदेशी व्‍यापारी ने किसान और उपभोक्‍ता दोनों को आंशिक लाभ देकर 30 रूपये का लाभ कमाया है जोकि सिर्फ और सिर्फ उसके ही खाते में गया और उसके खाते का जाने का मतलब विदेश गया, मतलब साफ, देश का धन विदेशी कमाएंगे और देशी व्‍यापारी जिन्‍हें हम मिडलमैन कहकर गरियाने का प्रयास करते हैं, बीन बजाते रह जाएंगे,

  3-    एक तीसरी बात कही गई है कि देश में 40 लाख रोजगार का सृजन होगा, निश्चित ही होगा, विदेशी दुकाने खुलेंगी तो रोज़गार का सृजन होना तय है, बात सत्‍य है परन्‍तु किस मूल्‍य पर यह भी विचार किए जाने की आवश्‍यक्‍ता है, एक बार पुनः प्‍वाइंट नम्‍बर 2 पर गौर करें, मित्रों देश में कथित बिचौलियों (मिडलमैन) की कुल संख्‍या 5 करोड़ से भी अधिक है, इनमें से यदि 20 फीसदी भी इस नई व्‍यवस्‍था के तहत बेरोजगार हो गए तो यह संख्‍या अनुमानित एक करोड़ की बैठती है, क्‍या हम एक करोड़ की बेरोजगारी के मूल्‍य पर 40 लाख रोजगार सृजन को मुनाफे का सौदा मान सकते हैं, शायद नहीं, ध्यान रखिये ये आंकड़ा घटेगा नहीं बल्कि बढेगा ही
 
  4. एक चौथी आशंका यह भी कि किसी भी आपात काल में क्‍या ये विदेशी अपनी दुकाने बंद कर अपने वतन वापस लौटने में तनिक भी देर लगाएंगे ? संभवतः नहीं !! कल्‍पना कीजिए कि भारत का किसी अन्‍य देश से युद्ध आरंभ हो जाता है, फिर ऐसी दशा में क्‍या होगा, इन देशों की सरकारें स्‍वतः अपील कर इन दुकानों को बंद करवा देंगी, फलतः देश में कभी भी अफरातफरी का माहौल फैल सकता है और अराजकता व्‍याप्‍त हो सकती है,

  5-   अधिक प्रभावशाली होने की दशा में क्‍या यह देश की राजनीति और व्‍यवस्‍था तंत्र को प्रभावित नहीं करेंगी, सोचिये, तब क्‍या होगा जब वह नीतियों को प्रभावित करने लायक शक्ति अर्जित कर लेगी तो,

उपर्युक्‍त की भांति ही मेरी अन्‍य आशंकाएं भी है, परन्‍तु उन्‍हें मैं फिलहाल के लिए छोड़ देता हूं, और सरकार की देश में प्रत्‍यक्ष विदेशी निवेश के निर्णय को अपना समर्थन देता हूं, आप कहेंगे कि मैं पागल हो गया हूं, खुद ही कहता हूं कि राष्‍ट्र संकट में घिर सकता है फिर खुद ही समर्थन देने की बात भी करता हूं, 

मित्रों आज समर्थन करने की मुझे एक वजह दिखती है और वह वजह यह कि देश की दोनों संसदों ने एफ डी आई लागू न करने सम्‍बंधी विपक्ष के प्रस्‍ताव को खारिज कर दिया है, देश में लोकतंत्र है और लोकतंत्र की खूबसूरती ही यह है कि वह अपने चुने हुए प्रतिनिधियों को यह शक्ति देता है कि वह लोककल्‍याण की नीतियां बनाए और लागू करे, हो सकता है कि मेरे जैसे अल्‍पज्ञानी को वह बात समझ न आ रही हो जो देश के महान अर्थशस्त्रियों को ज्ञात है, संसद में पक्ष-विपक्ष दोनों ने अपने-अपने तर्क रखे, मतदान किया और फिर एक निर्णय पर पहुंचे, लोकतंत्र में संसद की सर्वोच्‍चता है और जब उस सर्वोच्‍च संसद ने ही अपनी सहमति प्रदान कर दी है तो हम घर में बैठ कर सरकार पर क्‍यों और कैसे उंगली उठा सकते हैं, गनीमत यह है कि अभी यह एफ डी आई चुनिन्‍दा शहरों में और राज्‍य सरकारों की इच्‍छा के आधार पर लाया जाएगा, मुझे लगता है कि यह प्रयोग आशंकाओं के पर्दे को हटा वास्‍तविकता दिखाने का कार्य कर सकता है, सत्य असत्य का ज्ञान करा सकता है, 

मित्रों अंत में यही कहूँगा कि इस महान राष्‍ट्र ने अनेकानेक विदेशी आक्रंताओं को झेला है, आत्‍मसात् किया है और सदैव ही विजयी होकर बाहर आया है, आज भी यदि एक विदेशी आक्रांता का प्रहार राष्‍ट्र पर हो रहा है तो राष्‍ट्र उससे निपटने का रास्‍ता अवश्‍य तलाश कर लेगा और पुनः विजयी ही होगा, अपनी शक्ति पर भरोसा रखिए - 

मनोज