Sunday, 4 May 2014

धर्म क्‍या है ?



आज हमारे एक मित्र ने पूछा कि धर्म क्‍या है, तो सोचना पडा कि आखिर धर्म है क्‍या, मैंने मित्रों, अपनी पाठ्य पुस्‍तक में एक श्‍लोक पढा था, आपसे भी साझा किए लेता हूं –

नैव राज्‍यं न राजासीन्‍न, न दण्‍डो न दण्डिका
धमैणैव प्रजा सर्वां, रक्षंतिस्‍म परस्‍परम् |”

कथन का तात्‍पर्य यह कि एक समय ऐसा भी था, जब न तो कोई राजा था और न कोई प्रजा, न कोई कानून था और न ही कोई दंड देने वाला, ऐसे में धर्म के माध्‍यम से ही प्रजा एक दूसरे की रक्षा किया करती थी,

मित्रों, उक्‍त श्‍लोक में जिस धर्म की बात की जा रही है, वह है मानव धर्म. वही धर्म जो श्रेष्‍ठतम् माना जाता है. अब जरा सोचिए कि जब धरा पर मानव का उद्भव हुआ होगा, उस समय कौन सा धर्म था ? कोई नहीं ना !! तो फिर इस धर्म को बनाया किसने ? और इसका औचित्‍य क्‍या है ? क्‍या कारण है कि उस वक्‍त जिस बच्‍चे का जन्‍म हुआ था वह बिना किसी के धर्म के था जबकि आज बच्‍चा जन्‍म लेते ही एक धर्म विशेष से बंध जाता है, इसके जवाब की सोचें तो मेरे विचार से धर्म का विकास ज्ञान और उससे उपजी मतभिन्‍नता से हुआ है. जब मनुष्‍य का मस्तिष्‍क विकसित हो रहा था, तो उसने-अपने विचार बनाए, जिसे कुछ ने माना, कुछ ने नहीं. इन मान्‍यताओं के अपने प्रणेता थे, जिन्‍हें ईश्‍वर के समकक्ष और आराध्‍य माना गया. फिर मान्‍यताओं के आधार पर समूह निर्मित हुए, जिन्‍होंने अपने-अपने ग्रंथ बनाए, पूजा पद्दति विकसित की और अपने-अपने भगवान गढे, अब ये मान्‍यतायें उनके मन मस्तिष्‍क पर इतनी हावी हो गई कि वे विपरीत विचार सुनने को कत्‍तई तैयार नहीं थे, और इसी असहिष्‍णुता से विभिन्‍न धर्मों का उद्भव हुआ होगा,

अब प्रश्‍न उठता है कि इन धर्मो की सामाजिक जीवन में आवश्‍यक्‍ता क्‍या है ? और क्‍यों है ? तो मित्रों, सच तो यह है कि यदि धर्म पूर्ण रूप से अनावश्‍यक होता तो उसे कब का त्‍याग दिया गया होता, परन्‍तु ऐसा है नहीं, समाज में धर्म की अपनी आवश्‍यक्‍ता है, धर्म ने समाज के नियमों की संरचना की और उसी के आधार पर समाज का विकास और व्‍यवस्‍था का संचालन भी हुआ, नियमों को न मानने वालों को धर्म के आधार पर ही दंड की व्‍यवस्‍था भी की गई. धर्म ने लोगों को डराने का भी काम किया और यह विश्‍वास विकसित करने मे सफलता पाई कि धर्म को न मानने वाले अधार्मिकों को ईश्‍वर स्‍वयं दंड देता है, जिससे नैतिकता का भी विकास हुआ, इसके अतिरिक्‍त चूंकि जन्‍म से पूर्व और मृत्‍योपरान्‍त का सत्‍य अज्ञात है, अतः मैं कहूंगा कि धर्म ने उसे भी भुनाया, प्रत्‍येक धर्म ने अपने-अपने मतों के अनुसार मृत्‍योपरान्‍त के उस अज्ञात सच की न केवल अपने अनुसार व्‍याख्‍या की वरन लोगों के मन में उस व्‍याख्‍या को स्‍थापित भी किया. फलतः मृत्‍योपरांत स्‍थाई शांति जिसे मोक्ष की संज्ञा दी जाती है, कि तलाश भी धर्म के माध्‍यम से की जाती रही है.

यदि आज के समाज की बात करें तो आज का समाज दुःख, तकलीफों, गरीबी, बेरोजगारी, मंहगाई, भ्रष्‍टाचार जैसी अनेक समस्‍याओं से जूझ रहा है. ऐसे में धर्म ही उन्‍हें जीने का हौसला देता है. उनमें आशा का संचार करता है. उन्‍हें विश्‍वास दिलाता है कि नहीं, यह सभी मुसीबतें स्‍थाई  नहीं है, कहीं न कहीं उनका ईश्‍वर है, जो आएगा और उन्‍हें उनकी तकलीफों से मुक्ति दिलाएगा. तो धर्म एक जीवनदायिनी शक्त्‍िा के रूप में विकसित हुई है, वह शक्त्‍िा जो लोगों के हृदय में विराजमान है.

परन्‍तु दूसरी तरफ आज इसका विध्‍वंसकारी रूप भी है, इसी धर्म के नाम पर समाज बंटा हुआ है, लोगों को ऐसा लगता है कि सिर्फ उसके धर्म/ सम्‍प्रदाय/ समाज का व्‍यक्ति ही उनका हित कर सकता है. अन्‍य कोई नहीं और आज की लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था में इसी विभेद का लाभ उठाया जाता है, और बंटे हुए समाज को और बांटने का प्रबंध किया जाता है, और फिर यही विभेद अशांति और कलह का कारण बनता है. इसके अतिरिक्‍त अनेक स्‍वयंभू अपने अलग-अलग सम्‍प्रदाय निर्मित करने में लगे हैं, जिससे धर्म के नाम पर ठगी बढी है.

बहरहाल अंत में यही कहूंगा कि धर्म एक विश्‍वास है, एक दर्शन है, एक जीवनदायिनी शक्ति है, जिससे प्रेरणा पाकर यह समाज संचालित हो रहा है और आगे बढ रहा है बावजूद इसके कि इस विश्‍वास पर निरंतर प्रहार हो रहे है.




(मनोज)