रामदेव को मुसलमानों से प्रेम है तो किसी को भी क्यों
आपत्ति होनी चाहिए ?? मुझे भी नहीं है ! परन्तु इतना तो है कि आज जब रामदेव मुस्लिमों के लिए आरक्षण
की बात करते हैं तो उनकी बातों में सदाशयता कम ही नजर आती है, प्रश्न उठता है कि
आखिर क्या गरज पड़ गई कि उन्हें आज मुस्लिम आरक्षण की वकालत करनी पड़ गई ? आखिर क्या गरज पड़ गई कि
आज उन्हें मुस्लिम धर्मगुरूओं के साथ मंच साझा करने की कवायद करनी पड़ गई ? आखिर क्या जरूरत पड़ गई उन्हें
बिस्िमिल्लाह करने की ? नहीं नहीं !!! कुछ तो मंशा रही ही होगी, क्या ये सामाजिक मामला है, जैसा कि
दिख रहा है ? जी नहीं
ये नितांत राजनीतिक मामला दिखाई देता है !!!
बाबा राम को यदि वास्तव में मुस्लिमों के हित की चिन्ता
थी, तो पहला कार्य जो उनके अख्तियार में था वो वह करते, वह पहले अपने खुद के पतंजलि
आश्रम में मुस्लिमों को उतने प्रतिशत आरक्षण प्रदान करते जिसकी उन्होंने परिकल्पना
अपने मन मस्ितष्क में संजो रखी होगी, वे चाहते तो यह भी कर सकते थे कि उच्च कोटि
के मदरसे का निर्माण करवाते, जिसमें उच्च, आधुनिक एवं तकनीकि शिक्षा का समावेश होता,
वे चाहते तो मुस्लिमों के खुद के हित में उनके धर्म में व्याप्त कुरीतियों का विरोध
कर सकते थे,
परन्तु नहीं !!! उन्होंने ऐसा नहीं किया,
उन्होंने सस्ती लोकप्रियता हासिल करने का, मुस्लिमों के मध्य घुसपैठ करने का वही
रास्ता अपनाया, जिसे घुटे हुए राजनीतिज्ञ प्रायः इस्तेमाल करते हैं !!! फिर भला क्यो अब हम रामदेव
को योगगुरू की संज्ञा दें ? क्यों न इसकी बजाय हम उन्हें राजनीतिज्ञ के रूप में देखना
आरम्भ कर दें ???
अब आइये रामदेव के मुस्लिम प्रेम के निहितार्थ तलाश करने
की चेष्टा करते हैं…यहां इतना
तो सत्य है कि रामलीला मैदान में दिखाई गई राम(देव)लीला ने उनकी गरिमा रसातल तक गिराई ! नौ दिनों में पस्त होने
के कारण लोगों ने उनके योग तक पर ऊंगली उठा दी !! यहॉं मेरी सदैव से ही यह
मान्यता रही है कि यदि रामदेव, रामलीला मैदान में नग्न हो गये होते तो सरकार असहज
हो जाती, कदाचित उसका पतन भी हो सकता था !! परन्तु नारी वस्त्रों के प्रयोग ने रामदेव को शर्मसार कर
उन्हें नग्न कर दिया, वह इस गिरावट में चल ही रहे थे कि इस मघ्य उनकी इस गिरी हुई
छवि को उनके चेहरे पर पड़ी कालिख ने काफी हद तक पोंछने का काम किया, इस क्रम में सहानुभूति
बटोरने में तो वह सफल रहे, परन्तु फिर भी वह वहां तक नहीं पहुंच सके, जहॉं से वह चले
थे !!!
अब 3 जून को प्रस्तावित एकदिवसीय अनशन यदि असफल रहा
तो रामदेव के राजनीतिक भविष्य पर एक बड़ा प्रश्न चिहन लग जाना तय है !!! तो ऐसे में ऐन केन प्रकारेण
रामदेव, सभी प्रकार से, सभी तबकों को समर्थन जुटाने की कवायद करते नजर आ रहे हैं, इसी
क्रम में रामदेव ने अन्ना से गठजोड़ का प्रयास किया, परन्तु अन्ना टीम को यह बात
अधिक रास नहीं आई, उनके अपने स्वार्थ हैं, जिसकी चर्चा फिर कभी करेंगे, और इसी क्रम
में रामदेव को लगा कि शायद मुस्लिमों को लुभाने रिझाने से कुछ काम बन जाए, और उन्होंने
झटपट मुस्लिम आरक्षण की वकालत कर डाली, परन्तु रामदेव “आधी छोड़ पूरी को धावै, आधी मिलै न पूरी पावै” वाली कहावत भूल गये लगते हैं …. शंका यह है कि कहीं उनका
हाल, घर और घाट वाली कहावत के अनूरूप न हो जाये,
सत्य तो यह है कि रामदेव का जनाधार पहले ही काफी खिसक
चुका है, आज का मुस्लिम भी मूर्ख नहीं है, असली नकली चेहरों को बखूब पहचानता है, यकीन
नहीं आता तो उत्तर प्रदेश चुनाव के दौरान उन्हें आरक्षण दिलवाने का दिवा स्वप्न
दिखाने वालों से जाकर पूछो, आज भी वे लखनऊ की भूलभुलैया में अपना अस्तित्व तलाश करते
नजर आ जायेंगे, फिर रामदेव इस नए शगूफे से क्या हासिल कर पायेंगे सहज अनुमान लगाया
जा सकता है, कहीं ऐसा तो नहीं कि रामदेव अपनी राजनीतिक कब्र में प्रवेश कर चुके हैं
और अब वे इस पर मिट्टी भी स्वयं ही डाल रहे हैं
मनोज