आज का समाचार सुनते हुए पता चला की शिर्डी के साईं के दरबार में रूपये ७ करोड़ का चढ़ावा पिछले कुछ दिन में ही आ गया है........अभी अधिक दिन नहीं हुए जब पद्मनाभ मंदिर के पांच तहखानो से ही लगभग १ लाख करोड़ रूपये की संपत्ति मिली थी........छठे तहखाने से क्या मिलेगा, इसके तो सिर्फ कयास ही लगाए जा सकते हैं.....इस एक मंदिर का ये हाल है.....तो बाकी मंदिरों की तो बात ही क्या.....कुछ ज्ञात तो कुछ अज्ञात ......जगह जगह खजाना छुपा हुआ है.......अब समझ आया की हमारे देश को सोने की चिड़िया क्यों कहा जाता था.......परन्तु अफ़सोस आज देश की सोने की सारी चिड़ियाएँ बड़े बड़े मगरमच्छों के पेट में समां चुकी हैं.......
परन्तु प्रश्न उत्पन्न होता है की इस बीच सरकार कहाँ है........देश की हालत क्या है किसी से छुपी नहीं.....अर्जुन सेन गुप्ता की कमेटी के आंकड़ो को सही माने तो देश की ७७% जनसँख्या की दैनिक आय रूपये २० प्रतिदिन से कम है......जबकि इसके उलट सरकारी आंकड़े बताते है की २००१ में मात्र ३६ प्रतिशत लोग गरीबी रेखा से नीचे रह गए थे......और फिलहाल लगभग २६%, यानी की गरीबी दिन-ब-दिन कम होती जा रही है......अब गरीब कौन और गरीबी के रेखा कैसी है .....इसका निर्धारण इन विसंगतियों को देख कर आप स्वयं कर लीजिये....
आंकड़ो पर मत जाइये .....सच तो यह है की हमारे देश की ७५ से ८० फीसदी जनसँख्या आज भी गरीब है......उसके पास जीने लायक आवश्यक संसाधन नहीं हैं.....लेकिन सरकार है की एक लकीर खींच कर बैठी है और उसे पीट रही है........इस गरीबी की रेखा बारे में तो भगवान् ही बेहतर बता सकता है........या फिर इस देश के जानकार नेता....जिन्होंने लक्ष्मण रेखा की तरह इस रेखा की संरचना की है........जिन्होंने हिंदुस्तान की गरीबी नापने के लिए उनके भोजन में उपलब्ध कैलोरी जैसे गूढ़ चीज़ों का खास अध्ययन किया है......
लकड़वाला समिति के अनुसार गाँव में अगर एक व्यक्ति को २४०० किलो कैलोरी से कम और शहर में २१०० किलो कैलोरी से कम का भोजन मिलता है तो वह गरीबी रेखा के नीचे माना जायेगा.......और सरकार के हलफनामे के अनुसार गाँव में १७ रूपये में और शहरो में २० रूपये में इतना भोजन मिल जाता है.................मान गए लकड़वाला जी........क्या फार्मूला लाये हैं आप..........अब आपको कौन बताये कि कौन आदमी इस फार्मूले के अनुसार गरीबी रेखा से नीचे है और कौन नहीं............इसका पता तो आपके बाबूजी (बाप लिखना थोडा चीप लगा मुझे).......भी नहीं लगा पाएंगे......खैर माफ़ कीजिये.............बुद्धिजीवियों पर इस तरह कि टिप्पड़ियां ठीक नहीं.....उनकी भावनावों को ठेस पहुँचती है भाई....... और गरीब जिए या मरे....बुद्धिजीवी का सम्मान जरुरी है.......है न....
लकड़वाला समिति के अनुसार गाँव में अगर एक व्यक्ति को २४०० किलो कैलोरी से कम और शहर में २१०० किलो कैलोरी से कम का भोजन मिलता है तो वह गरीबी रेखा के नीचे माना जायेगा.......और सरकार के हलफनामे के अनुसार गाँव में १७ रूपये में और शहरो में २० रूपये में इतना भोजन मिल जाता है.................मान गए लकड़वाला जी........क्या फार्मूला लाये हैं आप..........अब आपको कौन बताये कि कौन आदमी इस फार्मूले के अनुसार गरीबी रेखा से नीचे है और कौन नहीं............इसका पता तो आपके बाबूजी (बाप लिखना थोडा चीप लगा मुझे).......भी नहीं लगा पाएंगे......खैर माफ़ कीजिये.............बुद्धिजीवियों पर इस तरह कि टिप्पड़ियां ठीक नहीं.....उनकी भावनावों को ठेस पहुँचती है भाई....... और गरीब जिए या मरे....बुद्धिजीवी का सम्मान जरुरी है.......है न....
अरे हम कहाँ से कहाँ चले गए......आइये फिर से मुद्दे पर चलते हैं........प्रश्न यह है की भगवान् इतनी संपत्ति का करेगा क्या ???......जबकि दूसरी ओर गरीब की हालत खस्ता है !!!.........क्या वास्तव में भगवान् को इतनी संपत्ति की जरुरत है.......नहीं ना........सही समझे......जरुरत किसे है........ये भी सही समझे आप......तो फिर इन मगरमच्छों के बारे में भला सोचेगा कौन.......कौन इन मगरमच्छों के पेट से हमारी सोने की चिड़िया को बाहर निकलेगा......किसी को तो साहस करना ही पड़ेगा........हम आप नहीं बाबा....सरकार की बात कर रहा हूँ मैं......याद कीजिये........उसे ही तो हमने चुना है हमारी देखबाल करने और हमारी सुरक्षा करने के लिए.....देश को सही दिशा देने के लिए......और देश को सम्रद्ध बनाने के लिए........
अब आप पूछियेगा की तो क्या इन सभी संपत्तियों का अधिग्रहण कर लेना चाहिए.... बिलकुल नहीं.....मैं भला ऐसा कहने वाला कौन होता हूँ......मैं भला ऐसा कहने वाला कौन होता हूँ......हम तो मात्र इतना कहेंगे कि महज १५००० से २०००० तक कमाने वाले का तो सरकार शोषण करती है......टैक्स के नाम पर साल में एक महीने के तनख्वाह झट से झपट लेती है......परन्तु कुछ रोज़ में करोडो का चंदा या दान जुटाने वालो पर सरकार की दृष्टी नहीं जाती.....ट्रस्ट के नाम पर बिना टैक्स के अर्जित इस धन को आप क्या कहेंगे........क्या ये काला धन नहीं.......जो लोग करोडो के मुकुट और हार चढाते हैं क्या उसकी जांच नहीं होनी चाहिए......और फिर क्या उसके स्रोत की जांच नहीं होनी चाहिए.......और कब तक .....चैरीटेबल ट्रस्ट के नाम पर संपत्ति बिना टैक्स दिए अर्जित की जाती रहेगी......वो भी तब जबकि देश को दिशा देने के लिए धन की कमी आड़े आ रही हो........गावो में अस्पताल न हो.......स्कूल और यूनीवरसिटिज़ ना हों.....सड़के न हों, बिजली ना हों.......पानी ना हों........भोजन ना हो.......खेतो के लिए खाद ना हो......बीज ना हो.....भगवान् भरोसे पैदावार हो और फिर भगवान् भरोसे उसकी बिक्री......जहाँ सरकार न्यूनतम से आगे बढ़ने का साहस ना जुटा पाती हो.....न्यूनतम समर्थन मूल्य......न्यूनतम साझा कार्यक्रम......कोई पूछे की भला अधिकतम क्यों नहीं.......कुछ तो अधिकतम करो......कब तक देश न्यून से काम चलाता रहेगा......जवाब मिला .....सोलिड मिला .....बहुमत ही पूर्ण नहीं........फिर पूर्ण काम कैसे होगा......सारा ध्यान और सारा धन तो बहुमत बचा के रखने में चला जाता है......बाकी के बारे में सोचने का टाइम मिले तब न.......बढ़िया है.......बहुत बढ़िया......परन्तु एक बात याद रखिये.......ये जवाब अधिक दिनों तक जनता को मूर्ख बनाने के लिए पर्याप्त नहीं.....कुछ और भी जुमले सोच के रखियेगा.....
अब आप पूछियेगा की तो क्या इन सभी संपत्तियों का अधिग्रहण कर लेना चाहिए.... बिलकुल नहीं.....मैं भला ऐसा कहने वाला कौन होता हूँ......मैं भला ऐसा कहने वाला कौन होता हूँ......हम तो मात्र इतना कहेंगे कि महज १५००० से २०००० तक कमाने वाले का तो सरकार शोषण करती है......टैक्स के नाम पर साल में एक महीने के तनख्वाह झट से झपट लेती है......परन्तु कुछ रोज़ में करोडो का चंदा या दान जुटाने वालो पर सरकार की दृष्टी नहीं जाती.....ट्रस्ट के नाम पर बिना टैक्स के अर्जित इस धन को आप क्या कहेंगे........क्या ये काला धन नहीं.......जो लोग करोडो के मुकुट और हार चढाते हैं क्या उसकी जांच नहीं होनी चाहिए......और फिर क्या उसके स्रोत की जांच नहीं होनी चाहिए.......और कब तक .....चैरीटेबल ट्रस्ट के नाम पर संपत्ति बिना टैक्स दिए अर्जित की जाती रहेगी......वो भी तब जबकि देश को दिशा देने के लिए धन की कमी आड़े आ रही हो........गावो में अस्पताल न हो.......स्कूल और यूनीवरसिटिज़ ना हों.....सड़के न हों, बिजली ना हों.......पानी ना हों........भोजन ना हो.......खेतो के लिए खाद ना हो......बीज ना हो.....भगवान् भरोसे पैदावार हो और फिर भगवान् भरोसे उसकी बिक्री......जहाँ सरकार न्यूनतम से आगे बढ़ने का साहस ना जुटा पाती हो.....न्यूनतम समर्थन मूल्य......न्यूनतम साझा कार्यक्रम......कोई पूछे की भला अधिकतम क्यों नहीं.......कुछ तो अधिकतम करो......कब तक देश न्यून से काम चलाता रहेगा......जवाब मिला .....सोलिड मिला .....बहुमत ही पूर्ण नहीं........फिर पूर्ण काम कैसे होगा......सारा ध्यान और सारा धन तो बहुमत बचा के रखने में चला जाता है......बाकी के बारे में सोचने का टाइम मिले तब न.......बढ़िया है.......बहुत बढ़िया......परन्तु एक बात याद रखिये.......ये जवाब अधिक दिनों तक जनता को मूर्ख बनाने के लिए पर्याप्त नहीं.....कुछ और भी जुमले सोच के रखियेगा.....
भगवान् को निश्चित रूप से धन की कोई आवश्यकता नहीं......शिर्डी के साईं के पास तो कोई संपत्ति थी ही नहीं.....इधर उधर मांग कर जो मिल गया उसी को खा लिया......फिर भला इतने चढ़ावे का वो क्या करेंगे......और तहखानो की बाते मुझे उस बुढ़िया की याद दिलाते हैं जो भूखी मर गई.......परन्तु बाद में उसकी झोपडी में सोने और चांदी के सिक्के जमीन में गड़े मिले........शायद उस दुखियारी को ये पता रहा हो की यहाँ पर धन है.......परन्तु उसने इस डर से किसी को ना बताया हो की कोई उससे ये सब छीन लेगा.....परन्तु इस तरह की विवशता सरकार के सम्मुख तो नहीं फिर वह उस वृद्धा की तरह व्यवहार क्यों कर रही है......
परन्तु कुछ इसी तरह की बात मुझे भगवान् के धन को लेकर दिखाई दे रही है.........धन है......वो भी भगवान् का........परन्तु वो गरीबो के कल्याण में नहीं लगाई जा सकती ........भला क्यों ???......क्या इससे भगवान् की दौलत कम हो जायेगी......ये अंदेशा है.......अगर नहीं........तो फिर निश्चित रूप से इस धन का सदुपयोग जन कल्याण में होना चाहिए........भगवान् तो सबके हैं.......फिर ये धन कुछ लोगों का होके कैसे रह सकता है........ये धन सभी का है और सभी को इसका लाभ मिलना चाहिए....सबसे पहले उन्हें जिसे इसकी सबसे ज्यादा जरुरत है.......
और फिर इसके आगे ट्रस्टों पर टैक्स तुरंत लगाया जाना चाहिए........एक सीमा से अधिक धन संचय पर भी रोक लगाया जाना जरुरी है.........चढ़ावा चढाने वालों के आय के स्रोत की भी जाँच होनी चाहिए...........कहीं वे अपना काला धन भगवान् के यहाँ तो नहीं खपा रहे........जरुरत है एक समग्र सोच कि, एक दूर दृष्टी क़ी .......एक रूपरेखा तैयार करने की.......जो मगरमच्छों का पेट फाड़ कर सोने की चिड़िया को बाहर निकल सके और फिर जिसका उपयोग करके देश एक बार फिर से समृधि की राह पर आगे बढ़ सके.......
मनोज