नमस्कार दोस्तों,
आपको तो पता ही होगा कि देश में १४ साल तक के बच्चो को शिक्षा का मौलिक अधिकार प्राप्त है. क्या अपने आस पास घूमते हुए आपको इस अधिकार पर हंसी नहीं आती ? इस बात पर शर्म नहीं आती. मुझे तो आती है. कहने कि जरुरत नहीं कि देश में बाल श्रम अपने चरम पर है. देश के किसी भी कोने में चले जाइये, चाय की दुकान पर छोटू आपको मिल ही जायेंगे. किसी भी छोटे बड़े मकैनिक की दुकान पर चले जाईये आपको रिंच हाथ में लिए बच्चे गाडी के नीचे दिखाई दे जायेंगे. यौन अपराध अपने चरम पर है सो अलग. ऐसे में सर्व शिक्षा का दम भरना न केवल शासन का खोखलापन दिखता है बल्कि हास्य भी उत्पन्न करता है. क्या इस प्रकार के कानून बना लेने मात्र से सरकार को भी अपने कर्त्तव्य से इतिश्री मिल जाती है ?
अभी अधिक साल नहीं हुए. देश में शिक्षा हेतु क़र्ज़ की नीति लागू कर दी गई. लोग बड़े खुश हुए की चलो अब बच्चों को उच्च शिक्षा मिल जाएगी. परन्तु मुझे ख़ुशी नहीं हुई. क्योंकि मुझे लगता है कि शिक्षा हेतु क़र्ज़ के माध्यम से सरकार बचपन को क़र्ज़ के जाल में फंसा रही है. जिस बच्चे की उम्र पढने लिखने की है. अपनी जिंदगी संवारने की है. पुस्तकों से ज्ञान अर्जित करने कि है, अब वह बैंकों के चक्कर अपना लोन पास करवाने और उसके ताम झाम समझने में व्यतीत करता है. जिससे वयस्क होने से पहले ही वह क़र्ज़ के जाल में उलझ कर रह जाता है. लिहाज़ा जब वह वयस्कता की दहलीज़ में अपना पहला कदम रखता है तो स्वयं को कर्ज़दार पाता है. शिक्षा सार्थक रही तो उसकी अच्छी खासी उम्र अपना क़र्ज़ चुकाने में बीत जाती है, परन्तु अगर कहीं नौकरी नहीं मिली तो फिर बेचारा खुद को बैंको से छुपाने की कोशिश करता रहता है. जिससे उसे स्वयं के चोर जैसा या चोर होने का एहसास होने लगता है.
मुझे समझ नहीं आता, की भाई शिक्षा देना तो माता पिता का कर्त्तव्य है. माता पिता नहीं तो समाज का कर्त्तव्य है, उस शासन का कर्त्तव्य है जो सुशासन का दावा करते है, उनका भी नहीं तो समाज सुधार के ठेकेदारों का कर्त्तव्य है जो जब तब पताका लेकर खड़े हो जाते हैं, परन्तु किसी भी दशा में बालक का खुद का तो ये कर्त्तव्य नहीं बनता की वह अपनी शिक्षा के लिए धन की व्यस्था करे.
देश में धन कि कमी नहीं, परन्तु सरकार को तो उद्योगपतियों कि चिंता सताती रहती है, उनके लाभ कि चिंता सर्वोपरि है क्योंकि चंदा तो उन्ही से मिलता है. फिर बच्चों कि चिंता भला कौन करे. मैं पूछता हूँ कि क्यों शिक्षा पर समग्र सब्सिडी नहीं दी जा सकती. क्यों मुफ्त बाल शिक्षा, और मुफ्त उच्च शिक्षा कि नीति लागू नहीं की जा सकती है. क्या सरकार को आगे आकर इस दिशा में प्रयास नहीं करना चाहिए.
परन्तु सरकार कुछ नहीं करेगी. अब आप ही सोचिये जिस देश का बचपन इन सब मुसीबतों से गुजरता हो, उस बच्चे से आप क्या अपेक्षा रखते है. आपने बच्चों को दिया तो कुछ नहीं, परन्तु बदले में आपको ओलम्पिक का गोल्ड चाहिए, अच्छे वैज्ञानिक चाहिए, कुशल इंजिनियर और दयालु डॉक्टर चाहिए. आप दान (Donation) के नाम पर हो रही रिश्वत पर अंकुश नहीं लगायेंगे. ट्यूशन के नाम पर ब्लैकमैलिंग पर नियंत्रण नहीं करेंगे, परन्तु बच्चों से ये जरुर अपेक्षा करेंगे की वह बड़ा होकर भ्रस्ट ना रहे देश की सेवा इमानदारी से करे. एक आदर्श नागरिक बने. अरे आपने तो उसकी नसों में खून की जगह छल भरा है तो मेरे भाई अपेक्षाए क्यों ?
अंत में मैं तो मात्र इतना कहूँगा की बचपन को छलना छोडिये. उन्हें क़र्ज़ के जाल में मत फंसाइए. अभी भी समय है, कहीं ऐसा ना हो की जब तक हम चेतें तब तक देर हो जाए.
मनोज