औरंगजेब मुगलों के
मध्य एक ऐसा शासक माना जाता है, जिसने प्रजा पर सर्वत्र अत्याचार किए, मन्दिरों
को तोडा, हिन्दुओं का उत्पीडन किया, जजिया कर लगाया तथा अनेकानेक अत्याचारों से
प्रजा को क्षुब्ध तथा संतप्त रखा, यहां मुझे ऐसा लगता है कि किसी भी व्यक्ति के
जीवन के दो पक्ष होते हैं, सकारात्मक भी और नकारात्मक भी, औरंगजेब को सदा ही
उसके नकारात्मक पक्ष के माध्यम से ही देखा तथा आंकलित किया गया है, ऐसे में आइये
औरंगजेब का थोडा सकारात्मक ढंग से आंकलन करने की चेष्टा करते हैं,
आरम्भिक जीवन व सत्ता प्राप्ति
औरंगजेब, जैसा कि
सभी जानते हैं, शाहजहां का तीसरा पुत्र था, उसका जन्म 14 अक्टूबर 1618 में दाहोद
में हुआ था, उसके तीन अन्य भाई दारा, शुजा तथा मुराद थे, औरंगजेब बचपन से ही
उद्यमी स्वभाव का था, वह कुशाग्र था, उसने अरबी तथा फारसी की उत्तम शिक्षा
प्राप्त की तथा उसकी हस्तलिपि अत्यंत ही सुन्दर थी, 1636 में 18 वर्ष की आयु
में उसे दक्कन में राजप्रतिनिधि के रूप में भेजा गया तथा खानदेश, बरार, तेलंगाना
और दौलताबाद उसके नियंत्रण में आए, परन्तु ऐसा कहा जाता है कि सम्भवतः वह एक सन्यासी
का जीवन व्यतीत करना चाहता था अतः उसके कुछ कार्य शाहजहां को पसन्द नहीं आए (ऐसा
भी कहा जाता है कि अपनी बहन के जलने पर आने में उसने विलम्ब कर दिया, जिससे
शाहजहां कुपित हो गया) अतः उसे दक्कन का प्रतिनिधित्व त्यागना पडा, 1645 में वह
गुजरात का शासक नियुक्त हुआ, बाद में उसने बलख, बदखशां तथा कंधार पर आक्रमण किए,
इस बीच दारा दिल्ली में ही था, कंधार से लौटने के बाद दारा के विरोध के कारण वह
सम्मानित न रह सका और 1653 में पुनः दक्कन का राजप्रतिनिधि बनाया गया, दक्कन की
राजनीतिक व आर्थिक दशा अब तक काफी बिगड चुकी थी (मुराद बख्श को उसकी जगह दक्षिण
भेजा गया था, परन्तु वह नाकाम रहा), जिसे औरंगजेब ने सुधारा, अधिक विस्तृत विवरण
न देते हुए यह कहना पर्याप्त है कि उसने दक्षिण के प्रदेशों पर अपना प्रभुत्व
कायम रखा,
सितम्बर 1657 में
यह खबर फैली कि शाहजहां बीमार है, और वह वास्तव में बीमार था भी, जिसका लाभ
दाराशिकोह ने उठाया, उसने शासन का नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया, शाहजहां के
आदेशों की अवहेलना करने लगा, बर्नियर (जो उस समय आगरा में मौजूद था) लिखता है कि
शाहजहां की दशा नौकरों के समकक्ष कर दी गई थी, दारा की दुष्टता से लाचार होकर
उसने राज्यशासन से अपना हाथ खींच लिया था, दरबारियों से भी दारा की आज्ञा के
अनुसार कार्य करने को कह दिया गया था, यहां तक कि शाहजहां के एक प्रमुख वजीर
सआदुल्ला खां जिस पर शाहजहां को अत्यधिक विश्वास था, की हत्या दारा द्वारा
करवा दी गई थी, ऐसी दशा में औरंगजेब ने यह समझते हुए कि दारा सत्ता पर अपना कब्जा
कर लेगा, अपने छोटे भाई मुराद बख्श (जोकि उस समय गुजरात का शासक था) को अपने साथ
मिला लिया, उसे सम्राट बनाने का प्रलोभन/ वादा किया तथा उसके साथ दिल्ली की ओर बढ
चला, मुराद और औरंगजेब की सेनाएं मिल कर बडी हो गई तथा आगरे की ओर बढ चली,
जिस समय औरंगजेब व
मुराद की सेना आगरा की ओर बढ रही थी, उस समय दारा का पुत्र सुलेमान शिकोह कंधार
में था, शाहजहां की सलाह थी कि उसके आने तक युद्ध न किया जाए, परन्तु दारा ने
उसकी एक न सुनी और आगरा से लगभग 15 मील दूर सामूगढ में दारा की सेना का मुकाबला
औरंगजेब से हुआ, दारा बहादुरी से लडा, जीत भी रहा था, औरंगजेब की सेना में महज
हजार- पांच सौ सिपाही ही बचे थे, परन्तु इसी बीच दारा के एक सरदार खलीलउल्ला खां
ने उससे धोखा दिया, न केवल उसने दारा को हाथी से उतरकर घोडे पर बैठने की सलाह दी,
जिससे सेना को यह लगा कि दारा मारा गया और भगदड मच गई, बल्कि वह अपने तीस हजार
सिपाहियों के साथ औरंगजेब के साथ जा मिला, दारा को भागना पडा, आगरा पहुंचने पर एक
बार फिर शाहजहां ने उसकी मदद की और रत्नों से लदे दो हाथी उसे प्रदान किए ताकि वह
अपनी शक्ति पुनः संग्रहित कर सके, दारा आगरा से दिल्ली, दिल्ली से लाहौर, लाहौर
से मुल्तान भागा, वहां से वह गुजरात गया और फिर एक बार अजमेर में औरंगजेब से
युद्ध हुआ, परन्तु शीघ्र ही उसे वहां से भागना पडा, उसने एक सरदार जीवन खां के
पास शरण ली, जिसने उसके साथ विश्वासघात कर, उसे औरंगजेब को सौंप दिया, प्रजा के
हृदय से दारा को निकालने की गरज से उसे एक छोटे और गंदे हाथी पर नगर में घुमाया
गया और तत्पश्चात 30 अगस्त को दारा की हत्या उसका सर काटकर कर दी गई,
रही बात मुराद बख्श
की जिसे औरंगजेब ने शासक बनाने का आश्वासन दिया था, परन्तु वह तो वह अयोग्य तथा
व्यसनी था, अत्यधिक मदिरा पान के कारण औरंगजेब उस पर कुपित हुआ और उसे कैद कर
लिया गया, बाद में 1661 में दीवान अली नकी की हत्या के अभियोग में उसे मृत्यु
दंड दिया गया, शुजा की सेना का मुकाबला औरंगजेब के सरदार मीर जुमला तथा उसके पुत्र
शहजादा मुहम्मद से हुआ, परन्तु इसी बीच शहजादा मुहम्मद, शुजा से जाकर मिल गया,
लेकिन शुजा ने उस पर विश्वास न किया तो मजबूरन उसे वापस औरंगजेब की शरण में आना
पडा परन्तु औरंगजेब ने अपने इस बगावती पुत्र पर दया ना की तथा उसे आजन्म कारावास
दिया गया तथा 1676 में उसकी मृत्यु हो गई, इसके बाद शुजा बंगाल भाग गया तत्पश्चात
उसकी कोई खबर ना लगी, कहा जाता है कि अराकान के राजा ने उसके समस्त परिवार की हत्या
कर दी,
इस प्रकार अनेक
प्रकार के उद्यम करता हुआ औरंगजेब 1658 में राजा बना, और जीवन पर्यंत भारत का शासक
बना रहा,
औरंगजेब
और उसके
भाई
प्रायः औरंगजेब की निन्दा
इस हेतु की जाती है क्योंकि वह
अपने भाइयों की हत्या करके सिंहासन पर बैठा था, परन्तु लोग इस बात
को भूल जाते हैं कि यदि औरंगजेब ने अपने भाइयों की हत्या न की होती तो उसके भाई उसकी हत्या कर देते, उस समय
का यही अघोषित नियम था, हुमायूं ने अपने
भाइयों के साथ सहानुभूति पूर्वक
व्यवहार किया था, परन्तु उसका फल उसे
क्या मिला, उसे दर दर
की ठोकरें खाने और साम्राज्य छोड़ने को विवश होना पड़ा, अन्ततः
उसे भी अपने भाइयों को ठिकाने लगाने के पश्चात ही सत्ता मिली, कामरान को अन्धा
कर मक्का भेज दिया गया,
हिन्दाल मारा गया और अस्करी को भी हज करने भेज दिया गया, जहां रास्ते में वह मारा
गया, शाहजहां भी अपने सौतेले भाई शहरयार खां को मारकर ही सिंहासन पर बैठा
था, विद्रोह तो जहांगीर ने भी किया था, यह बात
और है कि अकबर
द्वारा उसे दबा दिया गया और उसे क्षमा कर दिया गया (सम्भवतः इसलिए क्योंकि
वह उसका एकमात्र जीवित पुत्र बचा था), इतना ही क्यूं
यदि हम अतीत में जाएं तो हमारा इतिहास तो सत्ता हेतु हत्याओं की घटनाओं से पटा पड़ा है, हम क्यूं
भूल जाते हैं कि सम्राट
अशोक अपने सौ भाइयों को मारकर ही राजा बना था, जिसके प्रतीकों को हमने
गौरवपूर्वक अपना राजचिन्ह बना अपनाया हुआ है, और सबसे
ऊपर महाभारत की घटना, वह सत्ता
प्राप्ति हेतु भीषणतम नरसंहार का चरम नहीं तो और क्या है, अस्तु यह कहकर
निन्दा करना उचित नहीं कि औरंगजेब
ने अपने भाइयों की हत्या सत्ता प्राप्ति हेतु कर अधम
कृत्य किया, मुझे लगता है
कि उसके द्वारा की गई हत्याएं वास्तव में आत्मरक्षा हेतु की गई थी, जिन्हें तत्कालीन परिस्थिति
में उचित ही कहा जा सकता है,
औरंगजेब
और शाहजहां
औरंगजेब की आलोचना
इस हेतु भी होती है कि उसने
अपने पिता शाहजहां के साथ उचित व्यवहार नहीं किया, जोकि पूर्णतः सत्य नहीं है, आगरा लौटने के पश्चात
औरंगजेब ने कभी भी अपने पिता का सामना करने का साहस नहीं किया, कुछ लोग कहते हैं
कि भय से, परन्तु यहां यह कल्पना
ही हास्यास्पद सी लगती है कि उसे
तातरी बांदियों का कोई भय रहा होगा, मुझे लगता है
कि यह अपने पिता के प्रति उसका
सम्मान ही था कि उसने
उसका सामना न करना ही उचित समझा, वैसे शाहजहां का स्वयं
का व्यवहार अतीत में ऐसा नहीं रहा था जो उसे करूणा का पात्र बनाए, उसने जहांगीर के
विरूद्ध (उसके शासन के प्रथम
वर्ष में ही) विद्रोह कर दिया
था, फलस्वरूप दारा के साथ औरंगजेब को भी लाहौर में कैद करके रखा गया था, फिर शाहजहां ने औरंगजेब
के विरूद्ध दाराशिकोह की सहायता भी की थी, जिसके अभियोग में वह सरलता
से शाहजहां की हत्या कर अपने साम्राज्य को निष्कंटक कर सकता
था, परन्तु वह पितृघाती नहीं बना,
दारा की पुत्री को भी उसने शाहजहां के पास सुरक्षित भेज दिया था,
बर्नियर लिखता है कि शाहजहां के साथ सब
प्रकार से सम्मान और अदब का बर्ताव किया जाता था, उसे उन बादशाही महलों में रहने
की अनुमति दी गई थी जिनमें वह पहले रहा करता था और उसकी पुत्री बेगम साहब भी उससे
मिलने पाती थी, महल की इतर स्त्रियां भी जैसे रसोई की और नाचने गाने वाली
स्त्रियां आदि सब उपस्थित रहती थी और ऐसे विषयों में उसकी कोई इच्छा नहीं रोकी
जाती थी, अब शाहजहां बडा पवित्र और ईश्वर भक्त बन गया था, अतएव कई मुल्लाओं को
भी उसके पास जाकर धर्म की पुस्तकें पढकर सुनाने की आज्ञा थी, घोडा, बाज आदि कई
प्रकार के शिकारी जानवरों को मंगाने और हरिनों और मेंढों आदि की लडाई का तमाशा
देखने की भी अनुमति थी, तात्पर्य यह कि औरंगजेब का बर्ताव शाहजहां के साथ कृपा और
श्रद्धा से खाली नहीं था और जहां तक बनता था वह अपने वृद्ध पिता का हर प्रकार से
सत्कार करता था, वह उसके पास अधिकता से भेंट की वस्तुएं भेजता और राजनीति के
विषयों में भी उसकी सलाह बहुत उत्तम और उपकारी समझ कर ग्रहण करता था, उसके पत्रों
से जो वह समय समय पर लिखा करता था, श्रद्धा और आज्ञाकारिता झलकती थी, इन बातों से
शाहजहां का क्रोध और जोश यहां तक ठंडा पड गया था कि वह राज्य के वषिय में औरंगजेब
को लिखने पढने लगा था, दारा शिकोह की पुत्री को भी उसने उसके पास भेज दिया (जिसका
विवाह औरंगजेब के पुत्र से हुआ) और उन बहुमूल्य रत्नों को भी स्वयं उसके पास
पहुंचवा दिया जिनके बारे में उसने कहा था कि यदि मांगोगे तो इनको कूट कूट के चूर
कर दूंगा, अतः शाहजहां के प्रति औरगजेब के व्यवहार की सम्पूर्णता से निन्दा नहीं की जानी चाहिए,
औरंगजेब
और हिन्दू
यह अभियोग
पूर्णतः उचित है कि औरंगजेब ने हिन्दुओं के प्रति उचित
व्यवहार नहीं किया, यह सत्य
है कि उसने अनेकानेक मंदिरों
को विध्वंस किया, उसने मथुरा के केशवराय मंदिर, कालका जी मंदिर, दिल्ली, बनारस
के विश्वनाथ मंदिर व बिंदु माधव मंदिर, प्रसिद्ध सोमनाथ मंदिर, उडीसा के जगन्नाथ
मंदिर, चित्तौड के 63 मंदिरों समेत अनेकानेक मंदिरों का विध्वंस किया, मंदिरों
को नष्ट करने की सामान्य आज्ञा जारी कर दी गई थी, हिंदुओं को पालकी में चलना
प्रतिबंधित कर दिया गया था, यहां तक कि उन्हें हाथी और अरबी/फारसी घोडों पर चलने
की भी मनाही थी, औरंगजेब ने जजिया
कर भी पुनः लगा दिया था, जिसकी अधिकतम मार गरीबों पर पडी, अनेकानेक
हिंदुओं को मुसलमान बनाया गया, हिंदुओं को मुसलमान बनने के लिए लालच भी दिया जाता
था, एक हिंदू को मुसलमान बनने हेतु चार रूपये तथा एक स्त्री को मुसलमान बनने के
लिए दो रूपये दिए जाने का नियम था, (दो रूपये और चार रूपये उस कालखंड के अनुसार
कोई छोटी रकम न थी) इस प्रकार से औरंगजेब के हिन्दुओं के प्रति अनेकानेक दुर्व्यवहार
किए, उसके द्वारा किए दुर्व्यवहारों को किसी भी प्रकार से न्यायोचित नहीं ठहराया
जा सकता है, न ही हमें इसकी चेष्टा करनी चाहिए,
औरंगजेब ने सिखों
और मराठों के साथ कठोरतापूर्वक व्यवहार किया, उसके अति कठोर व्यवहार को भी न्यायसंगत नहीं ठहराया जा सकता, परन्तु सोचिए तो, क्या अपने विशाल साम्राज्य का कोई
भी हिस्सा उसे सरलता से किसी अन्य को प्रदान कर देना चाहिए था, क्या उसे सूरत मराठों को और
पंजाब सिखों को सुपुर्द कर देना चाहिए था, हां हो सकता है
कि व्यवहार थोड़ा भिन्न, थोड़ा
सभ्य होता, परन्तु कोई भी शासक
अपने विरोधियों को राज्य का कोई भाग युं ही नहीं प्रदान कर सकता, अतः औरंगजेब की इन दमनकारी नीतियों की
उतनी आलोचना भी नहीं होनी चाहिए,
औरंगजेब का स्वयं का आचरण
औरंगजेब का स्वयं
का आचरण निन्दनीय नहीं था, अन्य मुगल शासकों और राजकुमारों
की भांति वह
शराब नहीं
पीता था, संगीत उसे अप्रिय थी,
जिस पर उसने प्रतिबंध भी लगा दिया था, मितव्ययता उसकी जीवन
शैली थी और धर्म का तो इतना पक्का कि दारा
भी उसे नमाजी साहब कहा करता था, दक्कन (बल्ख) की लड़ाई के बीच युद्ध में वह नमाज पढ़ने के लिए ठीक समय में घोड़े से उतर गया था, जोकि उसके साहस की पराकाष्ठा कही जा सकती है, औरंगजेब ने अच्छी शिक्षा प्राप्त की थी,
वह फरमानों को खुद पढता और दस्तखत करता था, औरंगजेब का आरम्भिक
जीवन कठिनाइयों से बीता था, यदि औरंगजेब ने अपने बालपन से ही स्वयं के भीतर साहस का संचार न किया होता तो वह अधिक समय तक जीवित नहीं रह सकता था, उसके शत्रुओं यहां तक
कि उसके किसी भी भाई ने उसकी कभी की हत्या कर दी होती, औरंगजेब ने स्वयं
आगे रहकर न केवल युद्धों का संचालन किया और उसमें भाग लिया वरन उसने सिपाहियों का मनोबल
बढ़ाया तथा अनेकानेक युद्धों को जीता भी, औरंगजेब ने लगभग
पचास साल देश पर राज किया, वह भी
अपने साहस और अपने तलवार के दम पर, आधी शताब्दी कोई छोटा कालखंड नहीं होता है,
(याद रखना होगा कि देश
का आजाद हुए महज 68 साल ही हुए
हैं) और इतने लम्बे अन्तराल तक सत्ता पर नियंत्रण रखना किसी दुष्कर कृत्य से कम नहीं रहा होगा, औरंगजेब का राज्य
एक छत्र था और वह देश का वास्तविक तथा शासक था, शाहजहां उसके लिए खाली खजाना छोड़ के गया था, ताजमहल सरीखे अनेक निर्माणों के कारण
खजाना रिक्त हो चुका था, ऐसे में कर बढ़ाने
और खर्चों में कटौती के अतिरिक्त उसके पास कोई अन्य मार्ग था भी
नहीं, औरंगजेब किसी भी प्रकार से एक अय्याश शासक नहीं नहीं, उसने कुरान के नियमों
के अनुसार चार निकाह किए,
वह पांचो वक्त नमाज पढता था और पक्का मुसलमान
था,
अच्छा तनिक विचार तो कीजिए, क्या इतिहास
में कोई ऐसा शासक मिलता है, जो स्वयं के व्यक्तिगत खर्चों के लिए अतिरिक्त
कार्य करता रहा हो, नहीं ना, परन्तु औरंगजेब ऐसा ही एक विरल शासक था, उसका जीवन
बेहद सादा व सरल था, अपने व्यक्तिगत खर्चों के लिए वह कुरान की नकल लिखता था और
टोपियां सिलता था, अपनी वसीयत में औरंगजेब ने लिखा है कि
उसके द्वारा सिले गये टोपियों के भुगतान में प्राप्त चार रूपये दो आना, महलदार
आइया बेगा के पास है, उससे इसे लेकर उसके कफन के लिए खर्च किया जाए, इसके अतिरिक्त
तीन सौ पांच रूपये, जो कि कुरान की नकल लिखने की एवज में उसके द्वारा प्राप्त
वेतन है, वह उसके व्यक्तिगत खर्चों के लिए उसकी थैली में रखे हैं, उसे उसकी मृत्यु
के दिन फकीरों में बांट दिया जाए,
अंततः इतना ही कहना है कि औरंगजेब देश का
एक वास्तविक इतिहास है, जिसे चाह कर भी विलग नहीं किया जा सकता है, लगभग 2500 साल
के ज्ञात इतिहास में उन्चास साल का कालखंड कोई छोटा समय नहीं होता है, जिसमें
उसने सम्पूर्ण भारतवर्ष पर राज किया, अच्छा या बुरा तो कोई भी व्यक्ति अथवा
शासक होता ही है, सम्पूर्णता तो ईश्वर में भी नहीं होती, तो उसके दुष्कृत्यों
हेतु उसकी आलोचना हो सकती है, होती भी है, परन्तु इसे आलोचना तक ही सीमित रखें तो
ठीक है, और यदि हमने औरंगजेब की स्मृतियों को मिटाना आरम्भ कर दिया तो हममें और
उस औरंगजेब में क्या फर्क रह जाएगा, जिसकी इस हेतु आलोचना की जाती है कि उसने
प्राचीन मंदिरों को नष्ट किया था...
मनोज